पिछला भाग पढ़ने के लिए- पिंजरे वाली मुनिया: भाग-2
लेखक- उषा रानी
हंसती खिलखिलाती पुलक ‘मेन्स’ में बैठ गई. और यह क्या? शायद निषेध संघर्ष करने की क्षमता में एकदम वृद्धि कर देता है. व्यक्ति को अधिक गहनता से उत्साहित करता है. पुलक की तो रैंक भी 400 की आ गई है. आराम से दिल्ली में प्रवेश मिल जाएगा. ऐसा तो सचमुच न पुलक ने सोचा था और न ही तरंग ने. अब? मांबेटी दोनों ऐसी सकते में हैं जैसे कोई अपराध कर डाला हो. पुलक की इतनी बड़ी उपलब्धि इस परिवार के घिसेपिटे विचारों या पता नहीं झूठी मानमर्यादा के कारण एक पाप बन गई है. दूसरे परिवारों में तो बच्चे के 3-4 हजार रैंक लाने पर भी उस की पीठ ठोंकी जा रही होगी, जश्न मनाया जा रहा होगा. बेचारी पुलक का हफ्ता इसी उलझन में निकल गया कि बताए तो कैसे बताए?
तरंग भी हैरान हैं. वह मौके की तलाश में हैं कि यह खुशखबरी कैसे दें, कब दें. बात तो सचमुच हैरानी की है. दुनिया कहां से कहां छलांग लगा रही है. करनाल जैसे छोटे से शहर की कल्पना चावला ऐसी ऊंचाइयां छू सकती है तो उसी भारत के महानगर कोलकाता का यह परिवार इतना दकियानूसी? आज भी परिवार की मानमर्यादा के नाम पर पत्नी का, कन्या का ऐसा मानसिक शोषण? असल में पारिवारिक संस्कारों और परंपराओं का बरगद जब अपनी जड़ें फैला लेता है तो उसे उखाड़ फेंकना प्राय: असंभव हो जाता है. वही यहां भी हो रहा है.
‘काउंसलिंग’ की तारीख नजदीक आती जा रही है. घर में तूफान आया हुआ है, पुलक सब को मनाने की कोशिश में लगी हुई है लेकिन वे टस से मस होने को तैयार नहीं हैं. लड़की को इंजीनियर बनाने के लिए होस्टल भेज कर पढ़ाना कोई तुक नहीं है.