‘आजकल तो यह अपने गुप्त समाचार विभाग की बिल्लियों के बहुत गुणगान करती रहती है. वह भूल जाती है कि मैं एक लंबे काल से उस के दुखसुख का साथी, जिसे मक्कार, झूठा, बेईमान, बदमाश, चोर, निर्लज्ज घोषित कर दिया गया है. जैसेजैसे उस के कटाक्ष लंबे होते जाते हैं, मेरे दुख बढ़ते जाते हैं. रही बात बच्चों की, तुम्हीं बताओ, भारतीय अमेरिकी बहुओं के घर भला कितने दिन जा कर रहा जा सकता है?’
‘धर्मवीर, मुझे तुम्हारी चिंता होने लगी है. बस, यही कह सकता हूं कि वार्त्तालाप का रास्ता खुला रहना जरूरी है.’
‘हरि मित्तर, कोशिश तो बहुत करता हूं. पर जब परिचित लोगों के सामने मेरी धज्जियां उड़ाई जाती हैं, लांछन लगाए जाते हैं तब मैं बौखला जाता हूं. बोलता हूं तो मुसीबत, नहीं बोलता तो मुसीबत. इस उम्र में इतना तोड़ डालेगी, वजूद इतना चकनाचूर कर डालेगी, कभी सोचा न था. जब स्थिति की जटिलता बेकाबू होने लगती है, मैं उठ कर बाहर चला जाता हूं या किताबों को उथलपुथल करने लगता हूं. तब दोनों अपनेअपने कोकून में बंद रहने लगते हैं, मानो एकदूसरे को रख कर भूल गए हों. साथ ही तो रह जाता है केवल? दिन बड़ी मुश्किल से गुजरते हैं. जैसे छाती पर कोई पत्थर रखा हो और रातें, जैसे कभी न होने वाली सुबह. कामना करता हूं, इस से अच्छा तो बाहर सड़क पर किसी खूंटी पर टंगा होता. थोड़ा जीवित, थोड़ा मृत. फिर सोचता हूं कहीं दूर भाग जाऊं जहां कम से कम ये लंबे दिनरात कलेजे पर अपना वजन महसूस करते तो नहीं गुजरेंगे. पूरे घर की हवा में उदासी छितरी रहती है. तब एहसास होता है, शायद यह उदासी मेरे मरते दम तक हवा में ही ठहरी रहेगी. तू भली प्रकार से जानताहै कि मेरे भीतर एक कैदखाना है. कैसे भाग सकता हूं यथार्थ से.