उस के बारे में सुन कर धक्का तो लगा, किंतु आश्चर्य नहीं हुआ. कोसता रहा खुद को कि क्यों नहीं लिया गंभीरता से उस की बातों को मैं ने?
बीता वक्त धीरेधीरे मनमस्तिष्क पर उभरने लगा था...
लगभग 6 दशक से अधिक की पहचान थी उस से. पहली कक्षा से पढ़ते रहे थे साथसाथ. दावे से कह सकता हूं कि उस के दांत साफ करने से ले कर रात को गरम प्याला दूध पीने की आदत से परिचित था. उस की सोच, उस के सपने, उस के मुख से निकलने वाला अगला शब्द तक बता सकता था मैं.
पिछली कई मुलाकातों से ऐसा लगा, शायद मैं उसे उतना नहीं जानता था जितना सोचता था. हम दोनों ने एक कालेज से इंजीनियरिंग की. समय ने दोनों को न्यूयौर्क में ला पटका. धीरेधीरे मकान भी दोनों ने न्यूयौर्क के क्वींज इलाके में ले लिए. रिटायर होने के बाद धर्मवीर 10-12 मील दूर लौंग आईलैंड के इलाके में चला गया. तब से कुछ आयु की सीमाओं और कुछ फासले के कारण हमारा मिलनाजुलना कम होता गया.
पिछले 2 वर्षों में जब भी वह मुझ से मिला, उस में पहले जैसी ऊर्जा न थी. चेहरा उस का बुझाबुझा, बासे सलाद के पत्तों की तरह. उस की आंखों में जगमगाते दीये के स्थान पर बिन तेल के बुझती बाती सी दिखाई दी, जैसे जीने की ललक ही खो दी हो. उसे जतलाने की हिम्मत नहीं पड़ी. किंतु मैं बहुत चिंतित था.
एक दिन मैं ने उस के यहां अचानक जा धमकने की सोची. घंटी बजाई, दरवाजा पूरा खोलने से पहले ही उस ने दरवाजा मेरे मुंह पर दे मारा. मैं ने अड़ंगी डालते कहा, ‘अरे यार, क्या बदतमीजी है. रिवर्स गियर में जा रहे हो क्या? लोग तो अंदर बुलाते हैं. गले मिल कर स्वागत करते हैं. चायपानी पिलाते हैं और तुम एकदम विपरीत. सठियाये अमेरिकी बन गए लगते हो. अपना चैकअप करवाओ. ये लक्षण ठीक नहीं. देख, अभी शिकायत करता हूं,’ इतना कह कर मैं ‘भाभीभाभी’ चिल्लाने लगा.