‘‘अरेवाह मां, ये झुमके तो बहुत सुंदर हैं. कब खरीदे? रंजो ने अपनी मां प्रभा के कानों में झूलते झुमके को देख कर पूछा.
‘‘वो पिछले महीने हमारी शादी की सालगिरह थी न, तभी अपर्णा बहू ने मुझे यह झुमके और तुम्हारे पापा को घड़ी ले कर दी थी. पता नहीं कब वह यह सब खरीद लाई,’’ प्रभा ने कहा.
अपनी आंखें बड़ी कर रंजो बोली, ‘‘भाभी ने? क्या बात है. फिर आह भरते हुए कहने लगी, मुझे तो कभी इस तरह से कुछ नहीं दिया उन्होंने. हां भाई, सासससुर को मक्खन लगाया जा रहा है, लगाओलगाओ खूब मक्खन लगाओ.’’ लेकिन उस का ध्यान तो उन झुमकों पर ही अटका हुआ था. कहने लगी, ‘‘जिस ने भी दिया हो मां, पर मेरा दिल तो इन झुमकों पर आ गया.’’
हां तो ले लो न बेटा, इस में क्या है, कह कर प्रभा ने तुरंत झुमके उतार कर अपनी बेटी रंजो को दे दिए. लेकिन उस ने एक बार यह नहीं सोचा कि अपर्णा को कैसा लगेगा जब वह जानेगी कि उस के दिए झुमके उस की सास ने अपनी बेटी को दे दिए.
प्रभा के देने भर की देरी थी कि रंजो ने झट से झुमके अपने कानों में डाल लिए, फिर बनावटी सा मुंह बना कर कहने लगी, ‘‘मन नहीं है तो ले लो मां, नहीं तो फिर मेरे पीठ पीछे घर वाले, खास कर पापा कहेंगे, जब आती है रंजो, कुछ न कुछ तो ले कर ही जाती है.’’
‘‘कैसी बातें करती हो बेटा, कोई क्यों कुछ कहेगा? और क्या तुम्हारा हक नहीं है इस घर पर? तुम्हें पसंद है तो रख लो न इस में क्या है. तुम पहनो या मैं बात बराबर है.’’