लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर
मम्मीडैडी को सामने देख रमन ने जैसे ही झुक कर उन के पैर छूना चाहे, तो मां बोल पड़ी, ”हमारे यहां दामाद से पैर नहीं छुआए जाते.”
“क्यों मम्मी...? बड़ों के पैर छूने में आखिर हर्ज ही क्या है..?”
“अरे भई, रीतिरिवाज तो मानने ही पड़ते हैं.”
“लेकिन, मैं इन रीतिरिवाजों से परे, शादी के बाद जब भी अपनी इस मां से मिलने आऊंगा तो पैर अवश्य ही छुऊंगा...”
मां से आगे कुछ कहते ना बन पड़ा था. वो डैडी के पास रमन को बिठा कर मुझे साथ लेती हुई किचन में घुस गई थीं. आखिर होने वाला दामाद घर जो आया था.
मेरी पीएचडी कम्प्लीट हो गई थी और रमन का बैंगलोर यूनिवर्सिटी से अपौइंटमेंट लेटर आ चुका था. इस बीच हम कोर्ट मैरिज कर चुके थे, इसलिए रमन ने अपना रेजिगनेशन लेटर दिया और नोटिस पीरियड पूरा होते ही मुझे ले कर बैंगलोर आ गए.
अपनी ससुराल आ कर मैं सास से मिल कर बहुत प्रभावित हुई थी. वो एक ऐसी सास थीं, जो पूरी जिंदादिली और बेबाकी से अपनी बात कहने से नहीं चूकती थीं.
मुझे ससुराल में आए हुए अभी चार महीने ही हुए थे. रमन का बैंगलोर यूनिवर्सिटी ज्वाइन करने के बाद का रूटीन फिक्स हो चला था.
हम दोनों एकदूसरे के प्रति पूरे समर्पण भरे प्यार में डूब चुके थे. एक दिन रात के अंतरंग क्षणों में मैं रमन से बोली, "मैं चाहती हूं कि यूनिवर्सिटी में लेक्चर बन कर अपनी डिगरी का मान रख लूं."
"हां, चाहता तो मैं भी हूं, लेकिन लैंग्वेज प्रौब्लम कैसे फेस करोगी?" रमन मुझे अपनी बांहों में भींच कर... कुछ देर तक मेरे दिल की तेज धड़कनें सुनता रहा, फिर बोले, "सुमी, ऐसा करते हैं कि यहां की लोकल कन्नड़ भाषा तो तुम्हें मां बोलना सिखा देंगी और इंगलिश स्पीकिंग मैं सिखा देता हूं. मुझे विश्वास है कि ये दोनों भाषाएं सीखने के बाद तुम कौन्फिडेंस से बोलने लगोगी तो यूनिवर्सिटी में भी जौब लगने में कोई दिक्कत नहीं होगी.”