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यह कह कर वह मेरी अचरजभरी आंखों में झांकने लगा. उस की शरारती नज़रों को अपनी ओर ऐसे ताकते देख मेरी दृष्टि झुक गई. मुझे लगा जैसे मेरे कपोल कुछ गुलाबी हो गए.

राघव की खुद को पहचान कर अपनाने की हिम्मत मुझे अकसर हैरान कर देती. मुझे लगता कि मैं ने अपनी आधी ज़िंदगी के बाद खुद को पहचाना. इस से बेहतर रहता कि किशोरावस्था में ही अपनी असलियत का आभास मुझे भी हो जाता. परंतु जब मैं जवानी की दहलीज़ चढ़ रहा था तब इतनी जागरूकता, इतना खुलापन और इतना एक्स्पोज़र कहां था. आजकल की पीढ़ी कितनी स्मार्ट है. राघव के ऊपर मुझे गर्व होने लगता.

सबकुछ कितना सुखद चल रहा था. मेरे पास मेरा प्यार था और मेरा परिवार भी. परंतु समय की मंशा कुछ और थी. विशाखा को राघव के बारे में मैं ने ही बताया. अब वह केवल मेरी पत्नी नहीं, बल्कि मेरी सब से अच्छी दोस्त भी थी. मुझे लगा था कि मेरी खुशी में ही उस की खुशी है. मुझे प्रसन्न देख कर वह भी झूम उठेगी. लेकिन हुआ इस का उलटा.

“तुम ऐसा कैसे कर सकते हो? मेरे साथ बेवफाई करते तुम्हें शर्म नहीं आई?” मेरी बात सुनते ही विशाखा बिफर पड़ी.

“पर मैं तुम्हें अपनी सचाई बता चुका हूं. मैं ने तो सोचा था कि तुम... खैर छोड़ो. अब तुम चाहती क्या हो?” उस की प्रतिक्रिया पर मेरा हैरान होना लाजिमी था. अब तक मेरे पूरे जीवन में मेरे हृदय की दीवारें सीलन से भरभराती रहीं. अब जब वहां ज़रा सी किरणें जगमगाने लगीं तो विशाखा का यह रुख मेरी कोमल संवेदनाओं के रेशमी तारों को निर्दयता से झकझोरने लगा. “तुम ही कहो कब तक मैं आदर्शवादिता का नकाब पहने रहूं? अब मेरे अंदर पसरा सूनापन मुझे डसता है," मेरे इस कथन से शायद हम दोनों के रिश्ते के बीच फैला धुआं थोड़ा और गहरा गया.

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