उलटियां करती कनिका बेहाल हो रही थी. लेकिन अभी तक पेट में अन्न का एक दाना तक नहीं गया था. दोपहर बाद राखी उस के लिए एक प्लेट उबली हुई बेस्वाद सी सब्जी और बिना घी लगी 2 रोटी ले कर आई. मन हो न हो, लेकिन शरीर को तो भूख लगती ही है. तब और भी ज्यादा जब शरीर में एक और शरीर पल रहा हो. कनिका ने लपक कर एक निवाला मुंह की तरफ किया. खाते ही उसे उबकाई सी आ गई.
जलज कितना खयाल रखता था उस के खानेपीने का. उस के आंखें फेरते ही सब का नजरिया एक ही दिन में कितना बदल गया. जो मां जी उसे ‘खा ले, खा ले’ कहती नहीं अघाती थीं, वे आज देख भी नहीं रहीं कि वह खा भी रही है या नहीं. दो बूंद आंसुओं और दो घूंट पानी के साथ कनिका ने 2 कौर किसी तरह निगल कर प्लेट एक तरफ सरका दी.
“कनिका, 12 दिन घर में सूतक रहेगा. इसी तरह का खाना बनेगा. वैसे भी, अब सादगी की आदत डाल लो. हमारे यहां पति की चिता के साथ ही सब रागरंग भस्म हो जाता है, समझी?” माधवी ने उस की जूठी प्लेट की तरफ नजर डाली और राखी को प्लेट उठाने का इशारा किया.
‘फिर पंडित जी को क्यों छप्पन भोग खिलाए जा रहे हैं?’ कनिका ने अपने मन में उठे सवाल को वहीं का वहीं दफन कर दिया. सोच में सिर्फ एक ही बात थी, ‘कहीं जलज की आत्मा को कोई तकलीफ न हो.’
पहाड़ से दिन काटे नहीं कट रहे थे. कनिका को हिदायत थी कि सुबह सब से पहले उठ कर नहानाधोना कर ले और पक्के रंग के कपड़े पहन कर बैठक के लिए बैठ जाए. उसे ध्यान रखना होता था कि उस के चेहरे को कोई सुहागन स्त्री न देख ले या कोई पुरुष उसे छू न जाए. उस के इस्तेमाल किए गए कंघेतोलिए तक को सब से अलग रखा जाता था.