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लेखक-रमाकांत मिश्र एवं रेखा मिश्र

‘‘इतना कुछ सोचते हैं, फिर भी आप ने शादी नहीं की?’’

‘‘कहां सोचता हूं इतना कुछ. यह तो, बस, आप के सामने न जाने कैसे एक गुबार सा निकल पड़ा. वरना सोचता तो मैं भी वही हूं जो आप सोचती हैं. पर अब इतना कह कर, इसे मैं प्रतिक्रिया कहूं, अनुभव कहूं या समय का असर कहूं, समझ नहीं पा रहा क्या कहूं, दरअसल, मैं आप से तर्क नहीं कर रहा था, बोल कर सोच रहा था इतना सोच कर अब यों लगता है जैसे हम लोग जरूरत से ज्यादा भावना के अधीन हो गए हैं. ऐसी भावना जो कभी ठोस नहीं हो सकती.’’

‘‘भावना न हो तो पशु और मानव में अंतर क्या रहा?’’

‘‘पशुओं में भावना नहीं होती, यह आप से किस ने कहा?’’

‘‘क्या शादी जन्मजन्मांतर का बंधन नहीं?’’ ममता कुछ नाराज सी हो गई थी.

‘‘मैं भी यही मानता रहा हूं कि शादी जन्मजन्मांतर का बंधन है, लेकिन यह सच नहीं हो सकता. शादी शरीर की होती है और शरीर तो नष्ट हो जाता है.’’

‘‘तो एक मनुष्य, जो नहीं रह जाता, उस से कोई संबंध भी शेष नहीं रह जाता?’’

‘‘सारे संबंध शरीर से होते हैं. शरीर नष्ट हो जाने पर संबंध भी नष्ट हो जाते हैं. मैं अब सुरुचि का पति नहीं हूं. तुम भी बुरा मत मानना, तुम गोपालजी की पत्नी नहीं हो. मैं सुरुचि का विधुर हूं, तुम गोपालजी की विधवा हो. पतिपत्नी का रिश्ता तो तब तक ही है जब तक शरीर है. समाज तो इतना भी नहीं मानता. अगर पतिपत्नी शरीर के जीवित रहते भी एकदूसरे को त्याग दें तो संबंध समाप्त हो जाता है.’’

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