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मैंबेहद गुस्से में उस दिन को कोस रही हूं जिस दिन मेरा प्रेम एक वकील से हुआ. मैं एमए कर रही थी. सोशियोलौजी में और सुयश वकालत पढ़ कर आ चुका था. मैट्रीमोनियल साइट से हमारी शादी हुई. मैं उस

से मिली और वह बेहद सुल?ा इंसान लगा तो 15-20 बार कौफी पर उस के पैसे खर्च करा कर मैं ने हां कर दी. कई दोस्तों ने पता किया और तारीफों के पुल बांधे. सुयश ने सब को पार्टियों में भी खूब खिलायापिलाया और सगाई हुई थी.

 

अपने मांबाप से ले कर उन तमाम रिश्तेदारों पर मु?ो बेहद गुस्सा आ रहा था कि मैं ने इंजीनियर, डाक्टर, प्रोफैसर या किसी व्यापारी को नहीं ढूंढा. लेदे कर मेरे लिए ये वकील ही मिले, जिन के पेशे को गांधीजी जैसे संत भी भला नहीं सम?ाते थे.

 

वकालत का पेशा भी क्या पेशा? यों सम?िए कि यह चोरउचक्कों और बदमाशों की पैरवी की एक कला है जिस से घर तो भर जाता है, पर घर वालों के लिए यह मुसीबत ही है. सुबहसुबह कितने ही भले बनने का प्रण कर लो, फिर भी उठते ही ?ाठ का सामना करना पड़ता है अथवा बोलना पड़ता है. ?ाठ ही खाना, ?ाठ ही पहननाओढ़ना. सच मानिए वकील की पूरी दिनचर्या ही ?ाठ होती है.

 

उस जमाने की बात जाने दीजिए जब वकीलों की जमात ने इस देश को आजाद कराने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. उस समय नैतिकता मरी नहीं थी. आज तो गलीगली एडवोकेट का बोर्ड टांगने वाले इस पेशे के लोगों को ‘बार’ यानी कचहरी में वकीलों के उठनेबैठने के लिए विशेष रूप से बने कक्ष में बैठेबैठे मक्खियां मारते अथवा ताश के खेल में समय गुजारते देखा जा सकता है. आज समस्या आ खड़ी है कि इन का धंधा कैसे चले.

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