आज्ञा का तुरंत पालन हुआ. बंद खिड़कियों वाली अंधेरी पालकी में पड़ा हुआ कपिल अपनी भयंकर भूल पर पश्चात्ताप करने लगा. सारे संसार को कूटनीति का पाठ पढ़ाने वाला स्वयं अपनी मूर्खता को कोसने लगा. उसे शासन की ओर से किसी ऐसे कदम की आशा प्रारंभ में तो थी, पर जनआक्रोश की तीव्र लहर के कारण उस ने अपनेआप को अपराजेय मान लिया था.
केवल नारी होने के कारण उसे यशोवती की ओर से असावधान नहीं होना चाहिए था. जब उस के मित्रों ने ही उस का साथ छोड़ दिया तो जनता तो निश्चित रूप से मैदान छोड़ भागेगी.
अपने अनुयायियों पर उसे भयंकर क्षोभ उत्पन्न हुआ. वे लोग वास्तव में यशोवती के विरोधी न थे, प्रत्युत अंधानु- भक्ति के कारण वे कपिल का साथ दे रहे थे. सचमुच उस ने यशोवती का विरोध कर मृत्यु को आमंत्रित कर लिया था.
अब उसे अपने प्राणों के बचने की कोई आशा नहीं रही थी. अब उसे स्पष्ट हो गया था कि साधारण हाड़मांस की पुतली, भोली और कमजोर प्रतीत होने वाली नारी भी आवश्यकता पड़ने पर साक्षात काल बन सकती है. स्पष्टतया बाजी उस के हाथों से निकल कर यशोवती के हाथों में पहुंच चुकी थी.
सहसा अपने विश्वस्त साथी द्वारा यशोवती के संबंध में एकत्र की गई सूचना उस के मस्तिष्क में कौंध उठी. उस दिन का वार्त्तालाप उस की स्मृति में ताजा हो उठा.
‘यह समस्या अचानक कश्यपपुर में क्योंकर उत्पन्न हो गई. यशोवती के पति सम्राट दामोदर ने बैठेबिठाए मथुरा के यादवों से वैर क्यों मोल ले लिया?’ उस के इस प्रश्न पर उस के साथी ने एक लंबी सांस ले कर प्रत्युत्तर दिया था.