‘‘मैं ने आप को यहां आने का कष्ट इसलिए दिया जिस से अपने विधवापन का दंड मैं आप के मुख से ही सुन लूं. अपराधी आप के सम्मुख बैठा है न्यायाधीश महोदय, उस का दंड उसे सुना दीजिए.’’
‘‘राजमहिषी, मुझे लज्जित मत कीजिए. मैं आप से क्षमा चाहता हूं कि आप से एक बार भी भेंट किए बिना केवल सामाजिक व धार्मिक आधार पर मैं ने आप के विरुद्ध विषवमन किया.’’
‘‘पुरोहितजी, मैं तो आप के मुख से वही सब कुछ सुनना चाहती हूं जो अप्रत्यक्ष रूप से आप मुझे सुनाते आ रहे हैं. वही गालियां, अपशब्द, कटुवचन आदि.’’
कहतेकहते यशोवती ने पास में पड़ा घूंघट अपने मुख पर लपेट कर केवल अपने नेत्र खुले रहने दिए.
‘‘ओह,’’ चौंक कर कपिल बोला, ‘‘तो आप प्रतिदिन मेरे प्रवचनों में देवालय में उपस्थित होती रही हैं? धिक्कार है मुझे कि मैं आप को पहचान भी नहीं पाया.’’
‘‘सचमुच आप का ज्ञान अपरिमित है. आप की कूटनीतिक बातों में गांभीर्य है. आप की नीतिज्ञता की मैं पुजारिन हूं. इसीलिए तो मैं आप से विवाह रचाना चाहती हूं.’’
‘‘जी...?’’ कपिल को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ.
‘‘जी, हां...आप को मेरे वैधव्य और नारी होने से ही तो चिढ़ है? आप ही मेरे वैधव्य को मिटा सकते हैं. और मेरे पति के रूप में कश्यपपुर की गद्दी पर भी बैठ सकते हैं. मेरे इन हाथों, पैरों, माथे व मांग का सूनापन केवल आप ही दूर कर सकते हैं. कहिए, आप को मेरा प्रस्ताव स्वीकार है?’’
कपिल को अपनी कूटनीतिज्ञता व राजनीतिक उपदेशों की होली जलती प्रतीत हुई. यशोवती ने सचमुच उस के गले में स्वादिष्ठ कबाब के साथ हड्डी अटका दी थी. न उसे निगलते बन रहा था, न उगलते.