वैसे तो बनारस और तिब्बत के बीच बहुत दूरी है, लेकिन बनारसी सिल्क के बिजनैस ने इस दूरी को काफी कम कर दिया है. तिब्बत में रहने वाले बौद्धगुरु दलाईलामा को भी बनारस का सिल्क बहुत पसंद आया था और इस से तैयार होने वाला ब्रोकेड सिल्क वहां के लोगों को बहुत पसंद आता था. 1959 के पहले तिब्बत पर चीन का कब्जा नहीं था तो पूरे क्षेत्र में ब्रोकेड सिल्क यानी जरी से तैयार होने वाली ड्रैस बिजनैस का मुख्य आधार थी. अब भी काफी बड़े हिस्से में बनारस से सिल्क भेजा जाता है. रेशम के धागों की बुनाई और जरी मिला कर तैयार की जाने वाली डिजाइनर साडि़यों को बनारस की साड़ी कहा जाता है. ये साडि़यां मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के चंदौली, बनारस, जौनपुर, आजमगढ़, मिर्जापुर, भदोही, मुबारकपुर, मऊ, खैराबाद में तैयार की जाती हैं, लेकिन इन सब की पहचान बनारस की साड़ी के रूप में ही होती है. बनारस की साड़ी इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की आय का सब से बड़ा जरीया है. बड़ी तादाद में लोग बनारस की साड़ी लेने के लिए इन जगहों पर आते हैं. बनारस की साडि़यों का कारोबार सदियों पुराना है. मुगलकाल के समय इस की शुरुआत हुई थी. बनारस में पीली कोठी इलाके में250 सालों से बनारसी साडि़यों को तैयारकरने का काम होता है.
1886 में ब्रिटिश सरकार के द्वारा सिल्क इंपोरियम में काम करने वाले यहां के कारीगरों को राजकुमार अल्बर्ट पुरस्कार दिया गया था. बनारसी साडि़यों को पहले कडुवा कहा जाता था और इन्हें तनछुई, जामवार और शिफौन पर बनाया जाता था. जामवार डिजाइन कश्मीर के शौल से प्रभावित थी. जब इन साडि़यों में बनारस की कारीगरी दिखने लगी तो इन को बनारसी साडि़यों के नाम से जाना जाने लगा. एक बनारसी साड़ी को बनाने में करीब 4,200 मूल्य का कच्चा माल खर्च होता है. बनारसी साड़ी तैयार करने से पहले उस का डिजाइन तैयार किया जाता है. इस के बाद हथकरघा से इस डिजाइन का नमूना तैयार होता है. बनारसी साड़ी की कीमत 5,000 से शुरू हो कर लाखों रुपयों तक होती है. पहले पटका, शेरवानी, पगड़ी, साफा, दुपट्टे, बैडशीट, मसनद जैसी चीजें बनाने के लिए इस का प्रयोग किया जाता था. लेकिन भारत में साडि़यों का चलन अधिक था. ऐसे में इराक और बुखारा शरीफ जैसी जगहों से आए कारीगरों ने साड़ी बनाने का काम शुरू किया. ये साडि़यां हथकरघा का प्रयोग कर के तैयार की जाती थीं. बनारसी साड़ी की बुनाई करने वालों में एक नाम कबीर का भी है.