होली एक ऐसा त्योहार है जिसे देश के सभी नागरिक मनाते हैं. इस त्योहार में भाषा, जाति और धर्म की दीवारें गिर जाती हैं. हम ‘बुरा न मानो होली है’ कह कर किसी भी अजनबी को रंगों से सराबोर कर देते हैं. यही तो इस त्योहार की विशेषता है. लेकिन बदलते हालात और लोगों की बदलती सोच की वजह से होली अब उतनी खूबसूरत नहीं रही, जितनी पहले हुआ करती थी. अब प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों, ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फिल्मी गानों का प्रचलन है. फिर दूसरे त्योहारों की तरह इस त्योहार पर भी बाजारवाद का प्रभाव अब स्पष्ट दिखाई दे रहा है. मुनाफा कमाने के लिए रंगों में रसायन मिला कर बाजार में बेचा जा रहा है, जिस का हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. आधुनिक होली हमारे पर्यावरण को दूषित कर रही है.
पहले रंग बनाने के लिए रंगबिरंगे फूलों का प्रयोग किया जाता था, जो अपने प्राकृतिक गुणों के कारण त्वचा को नुकसान नहीं पहुंचाता था. लेकिन समय के साथ जैसेजैसे शहरों और जनसंख्या का विस्तार होने लगा वैसेवैसे पेड़ों की संख्या में भी कमी आने लगी. इस से फूलों की भी कमी होने लगी. उधर रंगों से जुड़ा व्यापार बढ़ने लगा तो फूलों से रंग बनाना महंगा पड़ने लगा. तब फायदे के लिए रंग बनाने के लिए रासायनिक चीजों का सहारा लिया जाने लगा. यह व्यापार की दृष्टि से तो मुनाफे का सौदा है, पर स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए अत्यंत नुकसानदायक.
पर्यावरण के लिए समस्या
लेकिन होलिका दहन की परंपरा पर्यावरण के लिए एक बड़ी समस्या है. आजकल हर गलीमहल्ले में होली जलाई जाती है और लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है. प्रतिस्पर्धा में आयोजकों का प्रयास होता है कि उन की होलिका का आकार दूसरे की होलिका से बड़ा हो. इस कारण होलिका दहन के नाम पर बड़ी संख्या में पेड़ों को काटा जाता है. इन को बचाने का यही एक तरीका है कि हर चौराहे पर होलिका दहन करने के बजाय शहर में 1 या 2 स्थानों पर होलिका दहन किया जाए. भारत में कृषि और पशुधन की अपार संपदा है. हमारे यहां पशुओं के बहुतायत में होने से गोबर भी बहुत होता है, इसलिए लोगों को लकड़ी की जगह कंडे की होली जलानी चाहिए ताकि पेड़ों की कटाई रोकी जा सके और पर्यावरण को नुकसान होने से बचाया जा सके.