मराठी फिल्म रिव्यू – घाट
नदी के घाटों पर मृत्यु के बाद चलनेवाले श्राद्ध संस्कार की अंधश्रद्धा पर सभी लोगों की अलग-अलग राय है. लेकिन इस सर्वव्यापी विचारों से दूर और गरीबी से त्रस्त गरीब लोग इस विधि को अपनी भूख मिटाने का जरिया समझते है.
‘घाट’ फिल्म का मन्या (यश कुलकर्णी) इन्हीं लोगों में से एक है. इस काम में उसका साथ देता है पप्या (दत्तात्रेय धर्मे). नदी में किये गए अस्थि विसर्जन से पैसा इकठ्ठा करना, मंदिर में आने वाले लोगों के माथे पर टिका लगाना, पिंडदान करने के लिए कौवों को बुलाना उनका धंधा होता है. शराबी पिता (उमेश जगताप), बीमार मां (मिताली जगताप) और बहन संगी (रिया गवली) के साथ मन्या घाट के किनारे ही रहता है. मां की दवा और बहन का पेट भरने के लिए मन्या हर रोज घाट पर घूमता रहता है. भूख की मार और पेट दुखने की बीमारी से मन्या की मां का निधन हो जाता है और दुसरों के पिंडदान के लिए कौवें बुलानेवाले मन्या पर अपनी ही मां का पिंडदान करने के लिए कौआ बुलाने की जिम्मेदारी आती है. लेकिन इस बार उसके बुलाने पर एक भी कौआ नहीं आता है और यहीं फिल्म का अंत हो जाता है.
फिल्म के दौरान दर्शक इंतजार करते रह जाते है कि कोई घटना घटेगी और फिल्म की कहानी शुरू होगी, लेकिन अंत तक ऐसा कुछ नहीं होता है. फिल्म में नदी के घाटों के जनजीवन को बखूबी दर्शाया गया है. लेकिन इन सबके जरिये निर्देशक कहना क्या चाहता है, यह अंत तक स्पष्ट नहीं होता है. केवल गरीबी दिखाना उद्देश्य था तो नदी के घाटों को ही क्यों चुना. इस तरह की गरीबी तो मुंबई के फुटपाथों पर हम देख सकते है. फिल्म के प्रत्येक कलाकारों के संवाद के जरिये गरीबी की व्यथा बताने की कोशिश की गई है, उसके बजाय यदि हालात के जरिये गरीबी समझाने का प्रयास किया गया होता तो फिल्म कुछ हद तक सफल साबित होती. मन्या नाईट स्कूल में पढने जाता है, लेकिन बच्चों के चिढाने के वजह से वह अपनी पढाई अधूरी छोड़ देता है. बड़ा होकर गाड़ी, बंगलों का सपना देखने वाला मन्या इतनी छोटी सी बात पर पढाई कैसे छोड़ सकता है, ये सोचने वाली बात है.