अक्सर एक महिला की जिंदगी की शुरुआत एक आज्ञाकारी, संस्कारी और प्यारी सी बेटी के रूप में होती है, जिस के कंधों पर जहां एक तरफ परिवार की इज्जत बनाए रखने की जिम्मेदारी होती है तो वहीं दूसरी तरफ घर वालों की उम्मीदों पर खरा उतरने का दायित्व भी होता है. उस से यह अपेक्षा की जाती है कि वह मांबाप का कहा माने और कुछ ऐसा न करे कि कोई ऊंचनीच हो जाए.

कुछ घरों में बेटी को आगे बढ़ने का मौका दिया जाता है तो कुछ घरों में नहीं. जहां मौका दिया जाता है वहां वह कैरियर की बुलंदियां भी छूती है. शादी के बाद वह ससुराल पहुंचती है जहां का माहौल उस के लिए बिलकुल अजनबी होता है. नया परिवेश, नए लोग और नई अपेक्षाओं के बीच वह अपना वजूद कहीं भूल सी जाती है. यदि पति उदार है तो पत्नी को आगे बढ़ने का मौका देता है.

वैसे खुद स्त्री की पहली प्राथमिकता हमेशा से घरपरिवार रही है खासकर मां बनने के बाद उस की जिंदगी पूरी तरह अपने बच्चे के आसपास घूमने लगती है. बेटी और पत्नी से शुरू हुआ सफर मां पर आ कर खत्म हो जाता है और खुद की पहचान बनाने की चाह अंदर ही अंदर कसमसाती रहती है. कभी समाज आगे नहीं बढ़ने देता तो कभी वह खुद ही हिम्मत नहीं जुटा पाती.

खुद बनाएं पहचान

महिलाओं को यह बात समझनी चाहिए कि मां बनने का मतलब यह नहीं कि उन का कैरियर खत्म हो गया. मां बनने के बाद भी वे अपनी सुविधानुसार काम कर सकती हैं और अपनी पहचान बना सकती हैं.

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