बरसात के मौसम में बच्चों का बाहर निकल कर खेलना कूदना बंद हो जाता है और वे कहते हैं- रेन रेन गो अवे... उसी तरह अधिक गरमी या जाड़े में परेशान हो कर हम कहते हैं कि यह मौसम कब जाएगा. मौसम का अपना एक नैचुरल साइकिल है और आमतौर पर किसी खास भौगोलिक स्थान पर यह अपने समय पर आता जाता है. हालांकि आजकल क्लाइमेट चेंज के चलते बेमौसम के भी कभी मौसम में बदलाव देखने को मिल सकता है.

कोई भी स्थिति ज्यादा बरसात या ज्यादा गरमी या ज्यादा ठंड जब लगातार लंबे समय के लिए हमें परेशान करता है तब मन में कुढ़न होती है. मगर क्या यह मात्र मन की परिकल्पना है कि सच में मौसम का असर हमारे मूड पर पड़ता है? 70 के अंत और 80 की शुरुआत में इन का संबंध उभर कर आने लगा था जब कुछ वैज्ञानिकों ने इस विषय पर अध्ययन शुरू किया है

मौसम और मूड का संबंध: यह संबंध बहुत मर्की है जिसे आप धुंधला, उदास, फीका या गंदा कुछ भी कह सकते हैं. विज्ञान के अनुसार मौसम और मूड का संबंध विवादों से घिरा है और दोनों तरह के तर्कवितर्क भिन्न हो सकते हैं. 1984 में वैज्ञानिकों ने मूड चेंज के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययन किया. इस अध्ययन में देखा गया कि मूड में परिवर्तन जैसे क्रोध, खुशी, चिंता, आशा, निराशा या आक्रामक व्यवहार जिन पहलुओं पर निर्भर करता है वे हैं- धूप, तापमान, हवा,  ह्यूमिडिटी, वायुमंडल का दबाव और उतावलापन.

अध्ययन में देखा गया कि जिन बातों का सर्वाधिक असर मूड पर पड़ता है वे हैं- सनशाइन या धूप, तापमान और ह्यूमिडिटी. खास कर ज्यादा   ह्यूमिडिटी बढ़ने पर कंसंट्रेशन में कमी होती है और सोने को जी चाहता है. 2005 के एक अध्ययन में देखा गया कि अच्छे मौसम में बाहर घूमने या समय बिताने से मूड अच्छा होता है और याददाश्त में बढ़त देखने को मिलती है.

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