धर्मग्रंथों ने ब्राह्मण को दूसरों की रोटियों पर पलने वाला, दीनहीन, दया पर पलने वाला जीव बना दिया. आज के स्वामी राजेश ब्रह्मचारी याहू न्यूज वेबसाइट पर कहते हैं कि श्रीमद्भगवत कथा में दान से बड़ा कोई तप नहीं बताया है. दान, तप के मार्ग पर चल कर इनसान आसानी से मोक्ष प्राप्त कर सकता है.
भैक्षेण वर्तयेन्नित्यं नैकान्नादि भवेद्व्रती
भैक्षेण व्रतिनो वृत्तिरुपवाससमा स्मृता.
(म.अ.-2-188)
यानी ब्रह्मचारी प्रतिदिन भिक्षावृत्ति करे किसी एक के अन्न का भोजन न करें. भिक्षान्न भोजन करने से ब्रह्मचारी की वृत्ति उपवास के समान कही गई है.
निमंत्रितो द्विज: पित्र्ये नियतात्मा भवेत्सदा
न च छंदांस्यधीयीत यस्य श्राद्धं च तद्भवेत्. (म. अ.-3-188)
अर्थात पितृश्राद्ध में निमंत्रित ब्राह्मण आत्मा को संयमपूर्वक रखें (मैथुनादि कर्म न करें) तथा वेद का अध्ययन भी न करें. श्राद्धकर्त्ता भी इन नियमों का विधिवत पालन करे.
यानी भोजन पाने के लिए उसे प्राकृतिक शारीरिक जरूरतों से वंचित रखने का प्रयास किया गया.
जागरण वेब न्यूज में लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ दिल्ली में वेद विभागाध्यक्ष प्रो. रमेशचंद्र दास शर्मा ‘श्राद्ध से तृप्त होते हैं पितृगण’ नामक लेख में लिखते हैं, ‘‘मंत्र, ब्राह्मण, उपनिषद आदि ग्रंथों में श्राद्ध के संबंध में अनेक मंत्र व प्रकरण वर्णित हैं.’’
यानी ब्राह्मणों को श्राद्धों में भोजन करने की बात को महिमामंडित किया गया है.
सर्वत: प्रतिगृहणीयाद् ब्राह्मणस्त्वनयं गत:
पवित्रं दुष्यतीत्येतद्धर्मतो नोपपद्यते. (म.अ.-10-102)
अर्थात जीविका नहीं मिलने पर आपत्ति में पड़ा हुआ ब्राह्मण सब से (नीच से भी) दान ग्रहण करे क्योंकि आपत्ति में पड़ा हुआ पवित्र (गंगाजल, ब्राह्मणादि) नाली का पानी या निषिद्धाचरण से दूषित होता है. यह शास्त्रसंगत नहीं होता है.
महाभारत में भी ब्राह्मण को अपने पेटपालन के लिए राजा पर निर्भर दिखाया गया है.