सोशल मीडिया पर यह चर्चा जोरों से चल रही है कि हम ने तो वोट मंदिर वालों को दिए थे तो अस्पताल कैसे मिलेंगे. यह गनीमत है कि लोगों को सदियों बाद ख्याल आया है कि मंदिरों से इलाज नहीं होता. हमारे देश में चप्पेचप्पे पर मंदिर बिखरे हुए. 10 साल पुराने मंदिर के सामने भी बोर्ड लगा है कि यह प्राचीन मंदिर है. पक्की इमारतें जिन पर हम गर्व करते हैं ज्यादातर मंदिर हैं.
मुसलमानों ने शहर बसाए थे या फिर ......हड़प्पा सभ्यता में शहर बसे थे. पौराणिक गाथाओं में आश्रमों का जिक्र ज्यादा है, महलों का कम है. अस्पतालों का तो नामोनिशान तब भी नहीं था और आज की सरकार की भी यह प्राथमिकता नहीं है. लोग अब पछता रहे हैं पर अब शायद देर हो चुकी है.
धाॢमक पाठ पढ़ाना आसान है क्योंकि धर्म की एजेंट घरघर आता है. अस्पताल वाले घरघर जा कर चंदा नहीं मांगेगे. डाक्टर कभी भी बेबात में घर पर विजिट कर के नहीं कहेगा कि आप को स्वस्थ रखने के लिए आप डाक्टर को कंसल्ट उन के व्यवसाय में स्वप्रचार ही प्रतिबंधित है. धर्म का व्यापार तो प्रचार भी निभर है और उन के घरघर में एजेंट हैं क्योंकि बहुत सी घरेलू हस्तियों को भी धर्म के सहारे मौत करने का मौका मिलता है.
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आधुनिक चिकित्सा आसानी से सुलर्म होने से पहले इस देश में हैजा, प्लेग, मलेरिया जैसी महामारियां थीं. टीबी, पोलियो जैसे रोग थे पर सब का उपाय था कोई यज्ञ कराना, कोई हवन कराना, आज भी इस मानसिकता के अवशेष मौजूद है. कोरोना से पहले तो कैंसर तक के लिए पूजापाठ का सहारा लिया जाता रहा है. आयुर्वेद का नाम ले कर दावे किए जाते हैं कि उस में कैसर रोग का अचूक उपाय है. दावे करने वाले पहुंचते अस्पतालों में ही है यह इस बात का सुबूत है कि न न करते हुए भी देश में मंदिरों से बड़े अस्पताल ही बन कर खड़े हो गए हैं जो आज लाखों कोविड मरीजों को शरण दिए हुए हैं.
भाजपा के अंध समर्थक आज भी यह समझने को तैयार नहीं है कि जब साधन सीमित हो तो पूंजी का उपयोग वहां हो जहां उस की जरूरत है.