ईश्वर एक है, यह बात सभी धर्म और धर्मगुरु प्रमुखता से कहते हैं. इस कथन के पीछे उन की उदारता कतई नहीं है बल्कि दुकानदारी चलाए रखने की खुदगर्जी है जिस का सार यह है कि लोग उन की बातें मानते रहें और दानदक्षिणा व चढ़ावा चढ़ाते रहें. अभी तक कोई भी धर्म ईश्वर का अस्तित्व साबित नहीं कर पाया है. इस का सीधा सा मतलब है कि वह एक मनगढं़त काल्पनिक पात्र है जिस के नाम से डराधमका कर धर्मगुरु पैसा ऐंठते हैं. भगवान, गौड, अल्लाह, किसी भी नाम से पुकारो मगर उस के वजूद पर उंगली मत उठाओ. धर्मगुरुओं का ऐसा कहते रहने के पीछे इच्छा यही रहती है कि लोग धर्म के मकड़जाल में उलझे रहें.
जो है ही नहीं उस के एक या अनेक होने का सवाल नहीं उठता. यह हकीकत इस से भी साबित होती है कि एक ही धर्म के कई संप्रदाय होते हैं, जो उसी धर्म के एक खास भगवान, देवता या दूत को मानतेपूजते हैं. उन की नजर में दूसरा देवीदेवता उन के भगवान के बराबर शक्तिशाली, पहुंच वाला या उद्धार करने वाला नहीं हो सकता. इस बाबत उन के पास तर्क होते हैं मगर वे उतने ही खोखले होते हैं जितनी खोखली संप्रदाय विशेष के अनुयायियों की कट्टर मानसिकता होती है.
ईश्वर होता तो वाकई एक होता और बहुत सारे धर्मों और संप्रदायों की जरूरत भी नहीं पड़ती. समाज में पनपते द्वेष, हिंसा और खुद के श्रेष्ठ होने के भाव का आधार लोगों की अपनी योग्यता या समझ न हो कर वे सिद्धांत हैं जो धर्म और संप्रदायों ने चला रखे हैं. हालत यह है कि लोग दूसरे धर्म तो दूर अपने ही धर्म के दूसरे संप्रदायों की बातों को बरदाश्त नहीं कर पाते. नतीजा कतई किसी के हित में नहीं निकलता सिवा धर्म के नाम पर दुकान चलाने वालों के, जिन्होंने अपना जाल आकाश से ले कर पाताल तक बिछा रखा है.