मैं कुछ दिन पहले एक मौल में शौपिंग कर रही थी. वहां 5 से 9-10 साल के बीच की 3 बहनों को देखा, जो अपने पिता के पीछेपीछे चलती हुईं रैक पर सजे सामान को छूतीं और फिर ललचाई निगाहों से पिता की ओर देखतीं. इतनी कम उम्र में हिजाब संभालती इन बच्चियों को देख साफ पता चल रहा था कि इन की बहुत कुछ लेने की इच्छा है पर खरीदा वही जाएगा जो इन का पिता चाहेगा. पिता धीरगंभीर बना अपनी धुन में सामान उठा ट्राली में रख रहा था. बच्चियों की मां पीछे गोद के बच्चे को संभालती चल रही थी. वह भी कुछ भी छूने से पहले पति की तरफ देखती थी.
अगलबगल कई और परिवार भी शौपिंग कर रहे थे, जिन की बेटियां अपनी मां को सुझाव दे रही थीं या पिता पूछ रहे थे कि कुछ और लेना है? उन हिजाब संभालती बच्चियों को हसरत भरी निगाहों से स्मार्ट कपड़ों में घूमती उन दूसरी आत्मविश्वासी लड़कियों को निहारते देख मेरे मन में आ रहा था कि न जाने वे क्या सोच रही होंगी. उन की कातरता बड़ी देर तक मन को कचोटती रही.
भेदभाव क्यों
इसी तरह देखती हूं कि घरों में लड़के अकसर ज्यादा अच्छे होते हैं. उच्च शिक्षा प्राप्त कर डाक्टर, इंजीनियर बनते हैं, जबकि उसी घर की लड़कियों को बहुत कम पढ़ा कर उन की शादी कर दी जाती है. ऐसा कैसे होता है कि लड़कियां ही कमजोर निकलती हैं उन के भाई नहीं? कारण है भेदभाव जो आज भी हमारे समाज में मौजूद है. बेटियों को ऊंचा सोचने के लिए आसमान ही नहीं मिलता है, बोलने की आजादी ही नहीं होती है, पाने को वह मौका ही नहीं मिलता है, जो उन के पंख पसार उड़ने में सहायक बने.