धर्मगुरू अपनी पैनी नजर महिलाओं पर रख धर्म के पालन की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर रखते रहे हैं. वे जानते थे और जानते हैं कि धर्मभीरु महिलाएं जल्द उन के प्रवचनों को आत्मसात कर उन के दिखाए मार्ग पर चल पड़ती हैं. तभी तो धर्म के ठेकेदार महिलाओं को पतिपुत्र, पिताभाई की उम्र, स्वास्थ्य व उन के कुशलमंगल के पूजापाठ में उलझाने में पूरी तरह सफल रहे हैं.
अभी तक पूजापाठ, व्रतउपवास का ही मकड़जाल था पर अब ‘उद्यापन’ भी इन में जुड़ गया है, जो अंधविश्वास के धरातल को और मजबूत कर रहा है. उद्यापनपूर्ति में धन और समय के अपव्यय के साथसाथ महिलाएं कूपमंडूक बन अपनी सोचनेसमझने की शक्ति को शून्य बना अपने आसपास व रिश्तेदारी में स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करती हैं. इस दौड़ में शिक्षित वर्ग भी बढ़चढ़ कर भाग लेता है, क्योंकि हर व्रत की कथा का सार कहता है कि जब तक उद्यापन नहीं होगा व्रत सफल नहीं होगा.
नंदीपुराण और निर्णय सिंधु में वर्णन है कि ‘‘उद्यापनं बिना यत्रुतद् व्रत निष्फलं भवेत.’’
उद्यापनों की लंबी फिहरिस्त
‘दशा डोरा’ का उद्यापन, ‘करवाचौथ’ का उद्यापन, ‘सोलहसोमवार’ का उद्यापन, ‘मंगला गौरी’ का उद्यापन, ‘प्रदोष व्रत’ का उद्यापन, ‘पूर्णमासी व्रत’ का उद्यापन, ‘संकष्ट चतुर्थीव्रत’ का उद्यापन, ‘संतोषी माता व्रत’ का उद्यापन, ‘गनगौर व्रत’ का उद्यापन, ‘सूरज’ का उद्यापन आदि. यानी जो भी व्रत रखा जाए उस का उद्यापन तो करना ही है तभी मन्नत पूर्ण होगी.
हर उद्यापन के पहले संबंधित व्रत की कथा पढ़ी व सुनी जाती है. इन कथाओं को पूर्ण निष्ठा व विश्वास के साथ बिना कोई तर्कवितर्क किए सुना जाता है. तर्क करने पर ‘पाप’ लगेगा तथा ईश्वर के दंड के भागी न बन जाएं, इस भय से कोई भी जातक तर्ककरने की सोचता भी नहीं.