‘‘मैम, रिपोर्ट तथ्यों पर आधारित है और इस में कुछ भी गलत नहीं है.’’
‘‘क्या तुम्हें अधिकारियों के आदेश का पता नहीं कि हमें शतप्रतिशत बच्चों को साक्षर दिखाना है,’’ सुपरवाइजर ने मेज पर रखी रिपोर्ट को स्मिता की तरफ सरकाते हुए कहा, ‘‘इसे ठीक करो.’’
‘मैम, फिर सर्वे की जरूरत ही क्यों?’ स्मिता ने कहना चाहा किंतु सर्वे के दौरान होने वाले अनुभवों की कड़वाहट मुंह में घुल गई.
चिलचिलाती धूप, उस पर कहर बरपाते लू के थपेडे़, हाथ में एक रजिस्टर लिए स्मिता बालगणना के राष्ट्रीय कार्य में जुटी थी. शारीरिक पीड़ा के साथ ही उस का चित्त भी अशांत था. मन का मंथन जारी था, ‘बालगणना करूं या स्कूल की ड्यूटी दूं. घर का काम करूं या 139 बच्चों का रिजल्ट बनाऊं?’ अधिकारी तो सिर्फ निर्देश देना जानते हैं, कभी यह नहीं सोचते कि कर्मचारी के लिए इतना सबकुछ कर पाना संभव भी है या नहीं.
स्कूटर की आवाज से स्मिता की तंद्रा भंग हुई. सड़क के किनारे बहते नल से उस ने चुल्लू में पानी ले कर गले को तर किया. उस के मुरझाए होंठों पर ताजगी लौटने लगी. नल को बंद किया तो खराब टोंटी से निकली पानी की बूंदें उस के चेहरे और कपड़ों पर जा पड़ीं. उस ने कलाई पर बंधी घड़ी पर अपनी नजरें घुमा दीं.
‘एक बज गया,’ वह बुदबुदाती हुई एक मकान की ओर बढ़ गई. घंटी बजाने पर दरवाजा खुलने में देर नहीं लगी थी.
एक सांवली सी औरत गरजी, ‘‘तुम्हारी अजीब दादागिरी है. अरे, जब मैं ने कह दिया कि मेरे बच्चे पोलियो की दवा नहीं पिएंगे, तो क्यों बारबार आ जाती हो? जाइए यहां से.’’