‘‘दादू ...’’ लगभग चीखती हुई झूमुर अपने दादू से लिपट गई.
‘‘अरेअरे, हौले से भाई,’’ दादू बैठे हुए भी झूमुर के हमले से डगमगा गए, ‘‘कब बड़ी होगी मेरी बिटिया?’’
‘‘और कितना बड़ी होऊं? कालेज भी पास कर लिया, अब तो नौकरी भी लग गई है मुंबई में,’’ झूमुर की अपने दादू से बहुत अच्छी घुटती थी. अब भी वह मातापिता व अपने छोटे भाई के साथ सपरिवार उन से मिलने अपने ताऊजी के घर आती, झूमुर बस दादू से ही चिपकी रहती. ‘‘अब की बार मुझे बीकानेर भी दिल्ली जितना गरम लग रहा है वरना यहां की रात दिल्ली की रात से ठंडी हुआ करती है.’’
‘‘चलो आओ, खाना लग गया है. आप भी आ जाएं बाबूजी,’’ ताईजी की पुकार पर सब खाने की मेज पर एकत्रित हो गए. मेज पर शांति से सब ने भोजन किया. अकसर परिवारों में जब सब भाईबहन इकट्ठा होते हैं तो खूब धमाचौकड़ी मचती है. लेकिन यहां हर ओर शांति थी. यहां तक कि पापड़ खाने में भी आवाज नहीं आ रही थी. ऐसा रोब था राधेश्याम यानी सब से बड़े ताऊजी का. यों देखने में उन्हें कोई इतना सख्त नहीं मान सकता था- साधारण कदकाठी, पतली काया. किंतु रोब सामने वाले के व्यक्तित्व में होता है, शरीर में नहीं. राधेश्याम का रोब पूरे परिवार में प्रसिद्घ था. न कोई उन से बहस कर सकता था और न ही कोई उन के विरुद्घ जा सकता था. कम बोलने वाले मगर अमिताभ बच्चन की स्टाइल में जो बोल दिया, सो बोल दिया.
हर साल एक बार सभी ताऊ, चाचा व बूआ अपनेअपने परिवार सहित बीकानेर में एकत्रित हुआ करते थे. पूरे परिवार को एकजुट रखने में इस एक हफ्ते की छुट्टियों का बड़ा योगदान था. चूंकि दादाजी यहीं रहते थे राधेश्याम के परिवार के साथ, इसलिए यही घर सब का हैड औफिस जैसा था.