यह सुन कर श्वेता दीदी मुसकराईं, ‘‘मुझे सब पता है आंटी और रिनी कितनी भली हैं, मैं यह भी जानती हूं. मेरे भाई ने शशि भाभी के बाद कभी न शादी करने का फैसला किया था आंटी. बच्चियां उन्हें अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी हैं. उन्हें सौतेली मां का रिश्ता नहीं देना चाहता था मेरा भाई पर अब जब उस ने देखा रिनी बिना स्वार्थ मन से इन्हें प्यार करती है तो...’’
सोचने के लिए कुछ वक्त मांग कर अम्मू ने श्वेता दीदी को विदा कर दिया.
फिर रिनी को मनाने लगीं, ‘‘लड़का नेक है, शरीफ भी, खाताकमाता भी अच्छा है, देखने में भी बहुत अच्छा है और सब से बड़ी बात कि उम्र भी तेरे हिसाब से ही है. मना मत करना बेटी.’’
ऐसे कैसे एकदम से हां कह दे. अभी तो पिछले घाव भी नहीं भरे हैं.
रचना दीदी को पता चला तो दौड़ी चली आईं, ‘‘हां न कहना रिनी. और अम्मू आप को हो क्या गया है, जो ऐसी सुंदर, पढ़ीलिखी, गुणी बेटी को 2 बेटियों के विधुर बाप के हवाले करने की ठान बैठी हैं. पहले क्या कम गम उठाए हैं इस ने? अरे, एक से बढ़ कर एक कुंआरा लड़का मिल जाएगा हमारी गुडि़या को. आप पर भारी पड़ रही है तो मैं ले जाती हूं. मैं इस की 2 बेटियों के बाप से शादी नहीं होने दूंगी.’’
जीजाजी भी बेटी की तरह मानते थे उसे. अत: उन्होंने भी पत्नी की बात का समर्थन किया. फिर खूब अच्छी तरह बहन का ब्रेनवाश कर के रचना दीदी चली गईं.
रिनी घोर असमंजस की स्थिति में थी. एक ओर रुचिशुचि का मोह खींचता तो दूसरी ओर पहली शादी से डरा मन दूसरी शादी की बेडि़यां पहनने से साफ इनकार करता. अम्मू व पापा चाहते थे शेखर से शादी हो जाए पर रचना दीदी और जीजाजी इस के सख्त खिलाफ थे. वह करे तो करे क्या? तभी अचानक उस के दिमाग में बिजली सी कौंधी. शीतल चाची, जो ससुराल की गली की चचिया सास होते हुए भी मां की तरह थीं उस के लिए, जिन से संपर्कसूत्र अब भी नहीं टूटा था. वे हमेशा उसे सही राह सुझाती थीं.