वह अपने हालात से परेशान हो कर कई बार सोचते थे कि त्रिवेणी उन के पास रहती तो बड़ा सुविधाजनक होता. वह उन के खानेपीने का कितना खयाल करती थी. भैयाभैया कहते उस की जबान नहीं थकती थी.
सच पूछो तो अपनी पत्नी इंदू की मौत का आघात वह उसी के सहारे सहन कर गए थे. त्रिवेणी के रहते उन्हें कभी एकाकीपन का एहसास नहीं सालता था.
सब से बड़ी बात यह थी कि तब मुन्ना के उपेक्षित रूखेपन, बहू की अपमानजनक तेजमिजाजी और नाती- नातिनों की बदतमीजियों की ओर उन का ध्यान ही नहीं जाता था. वह तो त्रिवेणी को भेजना ही नहीं चाहते थे, लेकिन बहू ने मुन्ना के ऐसे कान भरे कि उस का घर में रहना असंभव कर दिया.
एक दिन वह शाम की सैर को पार्क की दिशा में जा रहे थे कि मुन्ना ने कार उन के सामने रोक दी, ‘‘आइए, बाबूजी, मैं छोड़ दूं आप को पार्क तक.’’
वह कहना चाहते थे, ‘भाई, पार्क है ही कितनी दूर? मैं घूमने ही तो निकला हूं. खुद चला जाऊंगा,’ पर चाह कर भी कुछ न बोल सके और चुपचाप कार में बैठ गए.
मुन्ना ने जोर से कार का दरवाजा बंद किया. फिर कार चल दी. मुन्ना ने अचानक पूछ लिया, ‘‘बाबूजी, बूआ यहां कब तक रहेंगी?’’
वह चौंके, ‘‘क्यों बेटा? उस से तुम्हें क्या तकलीफ है?’’
‘‘तकलीफ की बात नहीं है, बाबूजी. मां के मरने पर बूआजी आईं तो फिर वापस गईं ही नहीं.’’
‘‘वह तो मैं ही उसे रोके हुए हूं बेटा. फिर उस पर ऐसी कोई बड़ी जिम्मेदारी अभी नहीं है. सो वह हमारे यहां ही रह लेगी.’’