ताला खोलते ही खिड़कियों के परदे सरकाते हुए मेरी नजर आयरन बोर्ड पर पड़ गई. ‘ओह, आज क्या हो जाता अगर आयरन आटोमैटिक न होती या फिर स्टैंड पर खड़ी कर के न रखी होती. इतने सारे प्रैस के कपड़े पास ही कुरसी पर रखे हुए थे. अगर यह आग खिड़की के परदों में लगती, फिर इसी तरह और कपड़ों में, सारा कमरा धूधू कर के... पीछे वाले कमरे में रामदुलारी सो रही थी. जब तक वह शोर मचाती, लोग आते, तब तक न जाने क्या हो जाता. लाचार व बेसहारा दुलारी कुछ कर भी नहीं पाती. उस का बेटा श्यामू तो रात को ही वापस आता. तब तक न जाने क्याक्या हो जाता...’ मैं बड़बड़ा रही थी.
‘‘क्या हुआ, मां?’’ रीतू, मीनू ने घबरा कर पूछा.
‘‘क्या बात है, बूआजी?’’ दीपाली ने कहा.
‘‘सब ठीकठाक तो है न. चलो, खैर मनाओ कुछ हुआ नहीं,’’ साहिल ने कहा.
‘‘सौरी बूआजी, मैं ने अपना सूट प्रैस किया था. मैं ही जल्दी में स्विच औफ करना भूल गई थी,’’ दीपाली अपनी गलती पर पछता रही थी.
‘‘चलो, कोई बात नहीं,’’ कह कर मैं मन ही मन कुछ सोचने लगी.
‘‘1 कप चाय मिलेगी गरीब को,’’ साहिल ने चाय मांगने का रटारटाया नुसखा आजमाया.
चाय बनाने मैं रसोई में आ गई. नीली लपटों से चाय के पानी में उबाल के साथसाथ मेरे विचारों में भी उबाल आ रहे थे. मैं यादों के गलियारे में पहुंच गई. जब दीपाली मुश्किल से 8-9 महीने की होगी. उसे गोद में ले कर कुछ न कुछ खेल उस के साथ मैं खेलती थी. रजाईगद्दे के बक्से के ऊपर एक छोटा बक्सा रखा रहता था, जहां प्रैस रखी रहती थी. दीपाली जब कभी रोती या किसी चीज को पाने का हठ करती तो मैं उसे बक्से पर खड़ा कर के आयरन का स्विच औनऔफ कराती. इस औनऔफ के खेल को देख कर भाभी ने दबी जबान से कहा भी था, ‘‘अगर भूल से कभी स्विच औन रह गया तो?’’