वह अब एक मृत शरीर था. स्वयं को चिरंजीवी, दूसरों से बेहतर तथा कुलीन समझने के अभिमान से बंधा हुआ उस का शरीर, ऐंबुलैंस के अंदर घंटों से निर्जीव, निरीह पड़ा था. न जाने कितनी बार अपनी कठोरता और शुष्क व्यवहार से भर कर उस ने लोगों का तिरस्कार किया था, आज स्वयं तिरस्कृत हो कर, लावारिस के समान पड़ा हुआ था.
जिस श्मशानघाट के द्वार पर खड़े हो कर, कभी उस ने शवों का भी वर्गीकरण किया था, उस स्थान पर उस के ही प्रवेश पर गहन चर्चा चल रही थी. चारधामों की यात्रा के बावजूद अर्जित पुण्य भी उस के पवित्र शरीर के लिए 4 कंधों की व्यवस्था नहीं कर पा रहे थे. उस की विशुद्ध और स्वर्ण देह, आज निर्जीव पङी थी.
उसे कुछ दिनों पूर्व करोना का आलिंगन प्राप्त हुआ था, लेकिन उस की आत्मा तो न जाने कब से मलिन थी. इस महामारी ने उस बलराज शास्त्री के शरीर का अंत किया था, जिस का हृदय स्वार्थ और अहंकार के वशीभूत था.
बलराज के पिता श्रीधर शास्त्री उज्जैन के एक गांव में एकमात्र यजमानी पंडित थे. इसी से घर में कभी खानेपीने, ओढ़नेबिछाने, पहननेखाने की वस्तुओं का अभाव नहीं रहा. यजमानों के घर में जन्म हो या मृत्यु, दोनों समान रूप से श्रीधर शास्त्री को समृद्धि से लाद जाते. वे ब्राह्मण थे और पूजित होने का परंपरागत जातिगत विशेषाधिकार उन्हें प्राप्त था.
4 पुत्रियों के बाद हुआ बलराज का जन्म, उस के परिवार और पिता के लिए किसी उत्सव से कम नहीं था. बचपन से ही उस की माता ने उस के भीतर के पुरुष का पूजन शुरू कर दिया, तो वहीं पिता ने उस के कोमल मन में घृणा का अंकुर बोना.