सुबह से ही नीरा का मन बेहद उदास था. यतीन को घर से गए हुए पूरे 2 माह बीत चुके थे. इस अवधि में कोई दिन ऐसा न था जब उस ने यतीन के घर लौट आने की बात न सोची हो, वक्त की आंधी के थपेड़ों से बिखर गए इस घर को सहेजने की न सोची हो किंतु उसे प्रतीक्षा थी सही वक्त की.
सुबह जब नीरा नाश्ते के लिए बाबूजी को बुलाने गई तो देखा, वे यतीन की फोटो के समक्ष खड़े चुपचाप उसे निहार रहे हैं. यद्यपि उसे देखते ही वे वहां से हट गए किंतु अश्रुपूर्ण नेत्रों में उतर आई व्यथा को उस से न छिपा पाए. नीरा ने एक बार गहरी दृष्टि से उन्हें देखा, फिर रसोई में चली गई.
नीरा का विवाह हुए 5 वर्ष बीत गए थे. सुहागरात को उस के पति नरेन ने कहा था, ‘बचपन में मेरी मां चल बसी थीं. बाबूजी, यतीन और मैं ने अत्यंत कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत किया है. घर में एक स्त्री का अभाव सदैव खटका है. मैं चाहता हूं, अपने स्नेह एवं अपनत्व के बल पर तुम इस अभाव की पूरक बनो. इस घर के प्रति तुम्हारी निष्ठा में कभी कमी न आए.’
नीरा ने अपना कांपता हुआ हाथ पति के हाथ पर रख कर उसे अपनी मौन स्वीकृति दी थी. अगले दिन नरेन ने हनीमून के लिए नैनीताल चलने का प्रस्ताव रखा तो नीरा ने इनकार कर दिया और कहा था, ‘नहीं, नरेन, नए जीवन की शुरुआत के लिए स्वजनों को छोड़ कर इधरउधर भटकने की आवश्यकता नहीं. हनीमून हम अपने घर पर रह कर मनाएंगे. यतीन की परीक्षाओं के बाद हम सब इकट्ठे नैनीताल चलेंगे.’