घर की बुजुर्ग महिला भगवती की मृत्यु हुए 20 घंटे से ज्यादा बीत चुके थे. बिरादरी के सभी लोगों के इकट्ठा होने का इंतजार करने में पहले ही एक दिन निकल चुका था. जब भी कोई नया आता, नए सिरे से रोनाधोना शुरू हो जाता. फिर खुसुरफुसर शुरू हो जाती. एक तरफ महल्ले वालों का जमावड़ा लगा था, दूसरी तरफ गांवबिरादरी के लोग जमा थे. केवल घर के सदस्य ही अलगअलग छितरे पड़े थे. वे एकदूसरे से आंख चुराना चाहते थे.
‘‘मृत्यु तो सुबह 8 बजे ही हो गई थी, पर महल्ले में 12 बजे खबर फैली,’’ पड़ोसिन रुक्मणि बोली.
‘‘भगवती अपने बहूबेटों से अलग रहती थीं. जब कभी दूसरों से मिलतीं तो अकसर कहतीं, ‘जैसा कर्म करोगे वैसा ही फल मिलेगा. अपने कामों को खुद भुगतेंगे, मुझे क्या मेरा गुजारा हो रहा है. मन आया तो पकाया, नहीं तो दूधफल खा कर पड़े रहे,’’’ दूसरी पड़ोसिन लीला बोली.
‘‘बेचारी बहुत दुखी महिला थीं, चलो मुक्ति पा गईं,’’ रुक्मणि ने कहा तो लीला बोली, ‘‘हां, मुझ से भी कहती थीं कि पूरी जिंदगी एकएक पैसा जोड़ने में अपनी हड्डियां गला दीं. आज इसी धन को ले कर बेटी, बेटे सभी का आपस में झगड़ा है. सभी को दूसरों की थाली में घी ज्यादा दिखता है. सोच रही हूं, किसी वृद्धाश्रम में एक कमरा ले कर पड़ी रहूं.’’
सब लोग मृतदेह को बाहर ले आए. कपड़े में लपेटते समय बड़ी बेटी उठ कर आगे आई तो पड़ोसिन रुक्मणि ने उसे रोक दिया, ‘‘न, केवल बहुएं ही इस कार्य को करेंगी, बेटियां नहीं. जाओ, कैंची और एक चादर ले कर आओ.’’