यह सुन कर बड़की क्रोध में आ गई. थोड़ी देर में ही घर कुरुक्षेत्र के मैदान में तबदील हो गया. एकदूसरे पर आरोपप्रत्यारोप लगने लगे.
‘‘अरे, कुछ तो शर्म करो. तुम्हारी मां ने क्या यही सोच कर धन इकट्ठा किया था कि तुम लोग धन के लिए एकदूसरे के शत्रु बन जाओ. अभी तो 13 दिन भी न हुए,’’ पड़ोसी बुजुर्ग महिला रुक्मणि ने आ कर सब को शांत किया. सब आपस में अबोला कर शांत बैठ गए, समाज को दिखाने के लिए.
दूसरे दिन भगवती के घर से लौटती रुक्मणि और लीला को उषा ने बाहर गेट के पास रोक लिया. ‘‘चाची, देखा न आप ने, कैसी संतानें हैं इन की. अरे अम्मा तो हमेशा हम बहुओं को ही कोसती रहीं कि ‘कैसे घर की हैं? कैसे संस्कार दिए तुम्हारे मांबाप ने?’ अब देख लो इन की संस्कारी औलादों को. अरे चाची, हम बहुएं रुपए, गहनों को ले कर झगड़ पड़े तो समझ आती है बात. मगर ये लोग तो एक ही मां की औलाद हैं, भाई, बहन है. एकदूसरे के कंधे पर सिर रख कर रोने के बजाय मां के मरते ही बैठ कर रुपयोंपैसों की लूट में जुट गए.’’
‘‘हां, कल रात को हल्लागुल्ला सुन कर मैं भाग कर आई थी,’’ रुक्मणि ने लीला को बताया.
‘‘मेरी शादी भी इसी लालच में की थी कि खूब दहेज मिलेगा. मेरे पिता तो दारोगा थे उस समय. बड़की जिज्जी की ससुराल से रिश्तेदारी है हमारी. एक बार मेरे पिताजी जुएं के अड्डे से छापा मार कर लौट रहे थे. मूसलाधार बारिश में उन की जीप पानी के गड्ढे में फंस कर बंद हो गई. एक जीप तो आगे थाने को निकल गई, जिस में जुआरी थे. पिताजी के पास रुपयों से भरा बैग और एक सिपाही ही रह गया. दूसरा मैकेनिक को लेने चला गया. पिताजी को याद आया कि ये घर दो फलांग की दूरी पर ही है तो वे सिपाही को गाड़ी के पास छोड़ कर यहां चले आए कि गाड़ी ठीक हो जाए तो चल पड़ेंगे. जानती हो चाची, फिर क्या हुआ?’’