‘‘मैं रोजरोज की किचकिच से ऊब चुका हूं. बेहतर होगा हम इस मकान को बेच कर अलग हो जाएं.’’
यह सुन कर मैं सन्न रह गया. मुझे सपने में भी भान नहीं था कि भैया पिताजी की विरासत के प्रति इस कदर निर्मम होंगे. आदमी जानवर पालता है तो उस से भी मोह हो जाता है. यहां तो पिताजी के सपनों का आशियाना था. इस से कितनी यादें हम लोगों की जुड़ी थीं. कितने कष्टों को झेल कर उन्होंने यह मकान बनवाया था. किराए के मकान में रह कर उन्होंने बहुत परेशानी झेली थी. 10 किराएदारों के बीच सुबह 4 बजे ही मम्मीपापा को उठना पड़ता था ताकि सब से पहले पानी भर सकें. साझा बाथरूम अलग सिरदर्द था. चीलकौओं को पानी देने वाला समाज व्यवहार में भैया जैसा ही होता है. लिहाजा, मैं ने मन मार कर उन के फैसले पर मुहर लगा दी.
मकान बिकने के बाद भैया ने दीदी को फूटी कौड़ी भी न दी. मामा ने मुझे सलाह दी कि अगर बड़े भैया गैरजिम्मेदार हो गए हैं तो तुम अपनी जिम्मेदारी निभाओ. उन्हीं के कहने पर मैं ने 50 हजार रुपए दीदी को पापा के हक के नाम कर दे दिए. उन्होंने भरसक मना किया. यहां तक कि रिश्तों की कसम देने की कोशिश की मगर मैं टस से मस नहीं हुआ. जीजाजी थोड़े रुष्ट हुए, कहने लगे, ‘किस चीज की हमारे पास कमी है. उस धन पर तुम दोनों भाइयों का हक है.’ भले ही उन्होंने मना किया पर मैं ससुराल वालों की मानसिकता को जानता था. पीठपीछे सासससुर जरूर ताना मारते. थोड़े रुपयों के लिए मैं नहीं चाहता था कि उन का सिर नीचा हो.