दिन के 10 बजे थे. उत्तराखंड आपदा राहत केंद्र की संचालिका अम्माजी अपने कार्यालय में बैठी आपदा राहत केंद्र के कार्यों एवं गतिविधियों का लेखाजोखा देख रही थीं. कार्यालय क्या था, टीन की छत वाला एक छोटा सा कमरा था जिस में एक तरफ की दीवार पर कुछ गुमशुदा लोगों की तसवीरें लगी थीं. दूसरी तरफ की दीवार पर कुछ नामपते लिखे हुए थे उन व्यक्तियों के जिन के या तो फोटो उपलब्ध नहीं थे या जो इस केंद्र में इस आशा के साथ रह रहे थे कि शायद कभी कोई अपना आ कर उन्हें ले जाएगा.
दरवाजे के ठीक सामने कमरे के बीचोंबीच एक टेबल रखी थी जिस के उस तरफ अम्माजी बैठ कर अपना काम करती थीं. उन का चेहरा दरवाजे की तरफ रहता था ताकि आगंतुक को ठीक से देख सकें. कमरे के बाहर रखी कुरसी पर जमुनिया बैठती थी, आने वाले लोगों का नामपता लिख कर अम्माजी को बताने के लिए. फिर उन के हां कहने पर वही आगंतुक को अंदर ले भी जाती थी उन से मिलवाने. जमुनिया की बगल में जमीन पर बैठा एक आंख वाला और एक टांग से लंगड़ा मरियल सा कुत्ता भूरा झपकी लेता रहता था.
उत्तराखंड में मईजून का महीना टूरिस्ट सीजन होता है. तपती गरमी से जान बचा कर लाखों की संख्या में पर्यटक पहाड़ों की ठंडक का मजा लेने आए हुए थे. ऐसे में जून 2013 में अचानक आई प्राकृतिक विपदा ने उत्तराखंड के जनजीवन को झक झोर कर रख दिया था. भारी संख्या में पर्यटकों के साथसाथ स्थानीय लोग भी हताहत हुए थे.