कमलाजी के दोगलेपन को देख कर बीना चिढ़ उठती थी. वह उन के इस व्यवहार के पीछे छिपे मनोवैज्ञानिक तथ्य तक पहुंचना चाहती थी. और जिस दिन उसे वजह पता चली तो उस पर विश्वास करना बीना के लिए मुश्किल हो रहा था.
‘‘वाह बीनाजी, आज तो आप कमाल की सुंदर लग रही हैं. यह नीला सूट और सफेद शौल आप पर इतना फब रहा है कि क्या बताऊं. मेरे साहब को भी नीला रंग बहुत पसंद है. जब भी खरीदारी करने जाओ, यही नीला रंग सामने रखवा लेंगे.’’
कमलाजी के जानेपहचाने अंदाज पर उस दिन बीना न मुसकरा पाई और न ही अपनी प्रशंसा सुन कर पुलकित ही हो पाई. सदा की तरह हर बात के साथ अपने पति को जोड़ने की उन की इस अनोखी अदा पर भी उस दिन वह न तो चिढ़ पाई और न ही तुनक पाई.
‘‘कमलाजी हर बात में अपने पति को क्यों खींच लाती हैं?’’ बीना ने सुमन से पूछा.
‘‘अरे भई, बहुत प्यार होगा न उन्हें अपने पति से,’’ सुमन ने उत्तर दिया.
‘‘फिर भी, कालेज के स्टाफरूम में बैठ कर हर समय अपनी अति निजी बातों का पिटारा खोलना क्या ठीक है?’’ बीना ने एक दिन सुमन के आगे बात खोली, तब हंस पड़ी थी सुमन.
‘‘कई लोगों को अपने प्यार की नुमाइश करना अच्छा लगता है. लोगों में बैठ कर बारबार पति का नाम, उस की पसंदनापसंद का बखान करना भाता है. भई, अपनाअपना स्वभाव है. अब तुम्हीं को देखो, तुम तो पति का नाम ही नहीं लेती हो.’’
‘‘अरे, जरूरी है क्या यह सब?’’