पूरा घर ही रमादेवी को अस्तव्यस्त महसूस हो रहा है. सोफे के कुशन बिखरे हुए, दीवान की चादर एक कोने से काफी नीची खिंची हुई मुड़ीतुड़ी और फर्श पर खुशबू व पिंकू के खिलौने बिखरे हुए थे. काम वाली महरी नहीं आई, इसीलिए घर की ऐसी हालत बनी हुई थी. वैसे, उन का दिल तो चाह रहा था कि उठ कर सब कुछ व्यवस्थित कर दें, लेकिन यह घुटने का दर्द...उफ, किसी दुश्मन को भी यह बीमारी न लगे. हड़बड़ाती सी सुलभा औफिस जाने के लिए तैयार हो कर आई. सामान सहेजते हुए वह निर्देश भी देती जा रही थी, ‘‘मांजी, खुशबू को दूधभात खिला दिया है और पिंकू को दूध पिला कर सुला दिया है. उसे याद से 3-3 घंटे बाद दूध दे देना. आया आज छुट्टी पर है. सब्जी मैं ने बना दी है, फुलके बना लेना. अब मुझे समय नहीं है.’’
हवा की गति से सुलभा कमरे से बाहर चली गई और पति आलोक के साथ अपने दफ्तर की ओर रवाना हो गई. रमादेवी सबकुछ देखतीसुनती ही रह गईं. बोलने का अधिकार तो वह स्वयं ही अपनी जिद के कारण खो चुकी थीं. सच, वे कितनी बड़ी भूल कर बैठीं. अपनी झूठी शान के लिए लोगों पर प्रभाव डालने के प्रयास में उन्होंने कितना गलत निर्णय ले लिया. विचारों के भंवर में डूबतीउतराती वे पिंकू के रोने की आवाज सुन कर चौंकीं. पलंग से उतरने की प्रक्रिया में ही उन्हें 2-3 मिनट लग गए. घुटने को पकड़ कर शेष टांग को दूसरे हाथ से धीरेधीरे मलते हुए वे पैर को जमीन पर रखतीं. बहुत दर्द होता था, कभीकभी तो हलकी सी चीख भी निकल जाती. पैर घसीटते हुए वे पिंकू के पास पहुंचीं. कहना चाहती थीं, ‘अरे, राजा बेटा, इतनी जल्दी उठ गया?’ लेकिन दर्द से परेशान खीजती हुई बोल पड़ीं, ‘‘मरदूद कहीं का, जरा आराम नहीं लेने देता, सारा दिन इस की ही सेवाटहल में लगे रहो.’’