हरीश बाबू और उन की पत्नी सावित्री सरकारी मुलाजिम थे. रुपए पैसों की कोई कमी नहीं थी, मगर निसंतान होने की कसक दोनों को हमेशा रहती. हरीश बाबू का साला सुधीर उन के करीब ही किराए के मकान में रहता था. उस की माली हालत ठीक न थी. उस का 4 वर्षीय बेटा सुमंत हरीश बाबू से घुलामिला था. एक तरह से दोनों की जिंदगी में निसंतान न होने के चलते जो शून्यता थी वह काफी हद तक सुमंत से भर जाती. हरीश बाबू अकसर सुमंत को अपने घर ले आते. कंधे पर बिठा कर बाजार ले जाते. उस की हर फरमाइश पूरी करते. उस की हर खुशी में वे अपनी खुशी तलाशते. सावित्री भी सुमंत के बगैर एक पल न रह पाती. दोनों सुमंत की थका देने वाली धमाचौकड़ी पर जरा भी उफ न करते. वहीं सुधीर व सुनीता, उस की बेजा हरकतों के लिए उसे डांटते, ‘‘जाओ फूफाजी के पास. वही तुम्हारी शैतानी बरदाश्त करेंगे.’’ एक दिन सुनीता सुमंत पर चिल्ला रही थी कि तभी हरीश बाबू उन के घर में घुसे. उन्हें देख कर सुमंत लपक कर उन की गोद में चढ़ गया.
‘‘बच्चे को डांट क्यों रही हो?’’ हरीश बाबू रोष से बोले.
‘‘आप के लाड़प्यार ने इसे बिगाड़ दिया है. हर समय कोई न कोई फरमाइश करता रहता है. आप तो जानते हैं कि हमारी आर्थिक स्थिति क्या है. उस की जरूरतों को पूरा करना हमारे वश में नहीं है,’’ सुधीर का भी मूड खराब था. उस रोज हरीश बाबू निराश घर आए. सावित्री से कहा, ‘‘अब वे सुमंत को नहीं लाएंगे.’’