हरीश बाबू के समझानेबुझाने पर वह मान गया. समय सरकता रहा. एक दिन सुमंत इंजीनियर बन गया. जब उस का कैंपस चयन हुआ तो सभी खुश थे. हरीश बाबू ने इस अवसर पर सभी का मुंह मीठा कराया. खुशी के साथ उन्हें यह जान कर तकलीफ भी थी कि सुमंत अब बेंगलुरु में रहेगा. पहली बार वह अकेला गया.
हरीश बाबू बूढ़े हो चले थे. उन की देखभाल सुनीता और सुधीर के लिए समस्या थी. समय पर दवा और भोजन न मिलता तो वे चिढ़ जाते. कभी सुनीता, तो कभी सुधीर से उलझ जाते. दोनों उन की हरकतों से आजिज थे. सिर्फ मौके की तलाश में थे.
जैसे ही सुमंत ने उन्हें बेंगलुरु बुलाया, दोनों ने एक पल में हरीश बाबू के एहसानों को धो डाला. जिस हरीश बाबू ने सुमंत को कलेजे से लगा कर पालापोसा, सुधीर, सुनीता का खर्चा भी उठाया, सुमंत की इंजीनियरिंग की फीस भरी, अपनी पत्नी के सारे जेवरात सुनीता को दे दिए, बची उन की असल संपति, फिक्स डिपौजिट के रुपए, वे सभी सुमंत को ही मिलते, को छोड़ कर सुधीर व सुनीता ने बेंगलुरु में बसने का फैसला लिया तो उन्हें गहरा आघात लगा.
वे नितांत अकेला महसूस करने लगे. पत्नी के गुजर जाने पर उन्हें उतना नहीं खला, जितना आज. कैसे कटेगा वक्त उन चेहरों के बगैर जिन्हें रोज देखने के वे आदी थे. कल्पनामात्र से ही उन के दिल में हूक उठती. वे अपने दुखों का बयान किस से करें. घर के आंगन में एक रोज वे रोने लगे. ‘वे अपनेआप को कोसने लगे. मैं ने ऐसा कौन सा अपराध किया था जो प्रकृति ने बुढ़ापे का एक सहारा देना भी मुनासिब नहीं समझा. लोग गंदे काम कर के भी आनंद का जीवन गुजारते हैं, मुझे तो याद भी नहीं आता कि मैं ने किसी का दिल दुखाया है. फिर अकेलेपन की पीड़ा मुझे ही क्यों?’ तभी सुनीता की आवाज ने उन की तंद्रा तोड़ी. जल्दीजल्दी उन्होंने आंसू पोंछे.