शादी होते ही 15 दिन तो शांभवी ने संयुक्त परिवार में घूंघट के भीतर यह सोच कर बिता दिए कि दिल्ली जाते ही वे इन सब बंधनों से आजाद हो जाएगी. मगर दिल्ली पहुंच कर उस के सारे सपने भरभरा टूट गए.
विजय बेहद लापरवाह और आलसी इंसान निकला. पूरे घर में सामान फैला कर रखता. घरेलू कार्य में मदद करने को अपनी तोहीन समझता. उस की वैस्टर्न ड्रैस को ले कर भी टीकाटिप्पणी करता.
हनीमून के लिए हिल स्टेशन का प्रताव रखने पर बोला, ‘‘हनीमून तो वे जाते हैं जो
अपने परिवार की बंदिशों में रहते हैं. हम तो यहां आजाद पंछी हैं. हमें कहीं जाने की क्या जरूरत? तुम ने तो कभी दिल्ली भी नहीं देखी है. वीकैंड में तुम्हें अलगअलग जगह जैसे इंडिया गेट, कुतुबमीनार, कनाट प्लेस, अक्षरधाम सब आराम से घुमा दूंगा.’’
शांभवी मन मसोस कर रह जाती. इशिता अभी भी उत्सुकता से उस के फोन का इंतजार करती. मगर शांभवी हां हूं, ठीक हैं कह कर बात टाल जाती.
शांभवी की शादी अच्छे से संपन्न होते ही भानुप्रताप ने इशिता की कुंडली रिस्तेदारों के माध्यम से अनेक जगह भिजवा दी. 2-4 जगह से अच्छे प्रस्ताव भी मिल गए. फिर क्या था भानुप्रताप अपनी पत्नी रितिका के पीछे पड़ गए, ‘‘सुनो, तुम इशिता को एक दिन बैठा कर अच्छे से समझओ. इतने अच्छे रिश्ते आसानी से नहीं मिलते. अभी उस की उम्र कम है जैसेजैसे उम्र बढ़ेगी रिश्ते मिलने भी कम हो जाएंगे.’’
‘‘जब इशिता पहले जौब करना चाहती हैं तो उसे कर लेने दो, फिर रिश्ते भी देख लेंगे,’’ रितिका ने समझया.
‘‘तुम ने भी तो शादी के 4 महीने बाद जौइन की थी वैसे ही वह भी कर लेगी,’’ भानुप्रताप लापरवाही से बोले.