बीए फाइनल की परीक्षा देकर दिल्ली के एक पीजी होस्टल से थकीमांदी घर झारखंड के रांची में पहुंची. सोचा था जीभर कर सोऊंगी और अपनी पसंद की हर चीज मां से बनवा कर खाऊंगी. सो खुशीखुशी बहुत सारी कल्पनाएं करती हुई घर लौटी थी.
घर पहुंचने पर दरवाजे पर बक्का मिल गए. फूलों की क्यारियों को सींचते हुए उन्होंने स्नेहभरी आंखों से मुझे देखा और ‘मुनिया’ कह कर पुकारा. बचपन रांची में गुजरा था और आज भी तब के जमाने का अच्छा सा बड़ा घर हमारा था. बक्का कब से हमारे यहां है, मैं भूल चुकी थी.
बक्का का वैसे असली नाम तो अच्छाभला रामवृक्ष था, पर इस बड़े नाम को न बोल कर मैं उन्हें बक्का कह कर ही पुकारती थी. फिर तो रामवृक्ष अच्छेखासे नाम के होते हुए भी सब के लिए बक्का बन कर रह गए. उन्होंने कभी एतराज भी नहीं किया. शायद अपनी इस मुनिया की हर बात उन्हें प्यारी थी. मां के होते हुए भी इन्हीं बक्का ने मुझे पालपोस कर बड़ा किया. ऐसा क्यों? यह बात में बताऊंगी.
‘‘बहूजी, मुनिया आ गई.’’ बक्का ने खुशीखुशी से झूमते हुए मां को आवाज दी.
मैं ने बक्का को नमस्ते की. उन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘जीती रहो, बेटी, इस बार तुम कुछ दुबली हो गर्ई हो.’
मैं जब भी कुछ दिनों बाद बक्का से मिलती हूं, उन्हें पहले से दुबली और कमजोर ही दिखाई देती हूं.
‘‘हां, बक्का, तुम्हारी बनाई चाय जो मुझे नहीं मिलती. वह मिले तो अभी फिर मोटी हो जाऊं.’’ मैं ने हंस कर बक्का को छेड़ा.
‘‘धत, हम को चिढ़ाए बगैर नहीं मानेगी.’’ कहते हुए बक्का खुशी से खिल उठे और रसोईघर में जा कर उन्होंने कनहाई की नाक में दम करना शुरू कर दिया, ताकि उन की लाडली को जल्दी चाय मिल सके.