सौरभ और तन्वी अपने कमरे में सारी बात सुन रहे थे. तन्वी ने बाहर आ कर कहा, ‘‘मां, आप कैसी बातें करती हैं, पापा बिलकुल ठीक कह रहे हैं.’’
लतिका चिल्लाई, ‘‘चुप रहो तुम और जाओ यहां से.’’ तन्वी चुपचाप दुखी हो कर अपने कमरे में चली गई. लतिका के गुस्सैल और लालची स्वभाव से तीनों दुखी ही तो रहते थे. जिस दिन शेखर को जाना था उस दिन भी लतिका ने उन से ठीक से बात नहीं की. वह मुंह फुलाए इधरउधर घूमती रही. शेखर सब से मिल कर मुंबई के लिए रवाना हो गए. मुंबई पहुंच कर शेखर को ठाणे में एक अच्छी सोसायटी में कंपनी की तरफ से टू बैडरूम फ्लैट रहने के लिए मिला जो पूरी तरह से फर्निश था. उन का औफिस मुंबई इलाके में था. उन की बराबर की बिल्ंिडग में उसी कंपनी के एक मैनेजर प्रणव, उन की पत्नी वल्लरी और 2 युवा बच्चे रिया और तन्मय रहते थे. प्रणव के परिवार से मिल कर शेखर खुश हुए. प्रणव की कार से ही शेखर औफिस जाने लगे. शेखर ने किचन के सामान की पूरी जानकारी वल्लरी से ले ली थी. वल्लरी ने अपनी मेड संध्या को शेखर के यहां भी काम पर लगा दिया था. शेखर का पूरा परिवार शेखर से फोन पर संपर्क में रहता था. उन के रहने, खानेपीने के प्रबंध के बारे में पूछता रहता था.
लतिका ने जब भी बात की बहुत ही रूखे ढंग से की. उस की अब भी वही जिद थी. कई बार वह फोन पर ही घर में हिस्से की बात पर लड़ पड़ती. लतिका की छोटी बहन वन्या मुंबई के अंधेरी इलाके में रहती थी. शेखर की शनिवार की छुट्टी होती थी. वन्या अपने पति आकाश और बेटे विशाल के साथ अकसर मिलने आ जाती थी. कई बार उन्हें गाड़ी और ड्राइवर भेज कर शनिवार को बुलवा लेती थी और रविवार की शाम को पहुंचा देती थी. शेखर को उन सब से मिल कर बहुत अच्छा लगता था. उन्हें मुंबई आए 2 महीने हो रहे थे. प्रणव अकसर शेखर को खाने पर बुला लेते थे. शेखर एक शांत और सभ्य व्यक्ति थे. सब उन का दिल से आदर करते थे. एक दिन प्रणव को पूछते संकोच तो हो रहा था पर पूछ ही लिया, ‘‘शेखरजी, भाभीजी कब आ रही हैं?’’