हर रोज की तरह जब शेखर औफिस से घर आए तो लतिका का मुंह फिर फूला हुआ था. उन्होंने अपने मांपिताजी को ड्राइंगरूम में उदास बैठे देखा तो उन्हें तुरंत अंदाजा हो गया कि क्या हुआ होगा. पिता सोमेश, मां राधिका ने उन्हें आता देख दीर्घ निश्वास ले कर फीकी सी मुसकराहट लिए देखा. शेखर ने पूछा, ‘‘तबीयत तो ठीक है न?’’
दोनों ने ‘हां’ में बस गरदन हिला दी. लतिका वहीं खड़ी सब को घूर रही थी. शेखर को देख उस ने त्योरियां चढ़ा लीं, पानीचाय कुछ नहीं पूछा. शेखर के छोटे भाई अजय की पत्नी नीता किचन से निकल कर आदरपूर्वक बोली, ‘‘भैया, आप फ्रैश हो जाएं, मैं चाय लाती हूं.’’ शेखर ‘ठीक है’ कह कर फ्रैश होने चले गए. वे समझ गए थे आज लतिका ने कुछ हंगामा किया होगा. मां, पिता अजय, नीता सब को बेकार के ताने दिए होंगे. अपनी मुंहफट झगड़ालू पत्नी के व्यवहार से वे मन ही मन दुखी ही रहते थे. शेखर एक एमएनसी में अच्छे पद पर थे. कोई आर्थिक तंगी नहीं थी. घर में फुलटाइम मेड नैना थी. तब भी लतिका किसी को सुनाने का मौका नहीं छोड़ती थी. उसे हमेशा इस बात पर चिढ़ होती थी कि शेखर अपने परिवार पर अच्छाखासा खर्च करते हैं. शेखर का कहना था कि उन की जिम्मेदारी है. वे उस से मुंह नहीं मोड़ सकते. लतिका का मायका भी उसी शहर बनारस में ही था जहां से उसे यही सीख मिलती थी कि अलग रहने पर वह दोनों बच्चों सौरभ और तन्वी के साथ ज्यादा आराम से रह सकती है. सोमेश रिटायर हो चुके थे. उन की पैंशन पर लतिका की नजरें रहतीं तो शेखर को गुस्सा आ जाता, कहते, ‘तुम्हें किस बात की कमी है. वे पिताजी के पैसे हैं. उन्हें वे जहां चाहें खर्च करेंगे कोई भी त्योहार, कोई मौका हो, वे कभी हम सब को कुछ न कुछ देने का मौका नहीं छोड़ते.’