मुझे सच में उन के घर जाना सुखद न लगता. मेरे जाते ही पोतेपोती अपना वीडियो गेम छोड़ कर आ कर जम जाते दादी के कमरे में. कान लगाए सुनते रहते हमारी बातें. बच्चों की आंखों में कहीं बालसुलभ मासूमभाव नहीं. अजीब उपेक्षा और हिकारतभरा भाव होता. दादी के कंधे पर चढ़ रहे हैं... ‘दादी, चलो, हम को होमवर्क कराओ.’ दादी की हिम्मत नहीं कि झिड़क सकें, ‘जाओ, बाहर खेलो,’ उन के शातिरपने का किस्सा भी सुन चुकी हूं मैं.
कुछ दिनों पहले सहेली की छोटी बेटी की लड़की हुई थी. मैं घर आई तो बोली, ‘‘बच्ची की छठी में जाना है. छोटी सी सोने की चेन देने का मन है. किसी अच्छे ज्वैलर की दुकान से दिलवा दे.’’ मैं उसे अपने परिचित ज्वैलर की दुकान में ले गई. उस ने एक चेन पसंद की. मगर जैसा लौकेट वह चाहती थी, वैसा दुकान में था नहीं. दुकानदार ने कहा, ‘‘4 दिनों में वह वैसा लौकेट बनवा देगा.’’
4 दिनों बाद वह दुकान में गई, अकेले ही. लौकेट लिया. घर लौटी. बेटाबहू, बच्चे सामने अहाते में ही कुरसियां डाले बैठे थे. बेटा बोला, ‘कहां गई थी मां?’
उस ने मेरा नाम बता दिया.
10 वर्षीय पोता आंखें तरेर कर बोला, ‘‘इतना झूठ क्यों बोलती हो, दादी. तुम तो ज्वैलर की दुकान से लौकेट ले कर आ रही हो.’’
सहेली का चेहरा फक पड़ गया, ‘‘कैसे कह रहा है तू यह?’’
‘‘मैं गया था न तुम्हारे पीछेपीछे. जब तुम लौकेट पसंद कर रही थीं, मैं तुम्हारे ही तो पीछे बैठा था सोफे पर.’’
सारा किस्सा सुन कर मैं अवाक रह गई, ‘‘उस लड़के को यह कैसे पता चला कि तू ज्वैलर की दुकान जा रही है?’’