दुख और क्षोभ में भरी सहेली कुछ पल खामोश खड़ी देखती रही. आंखों में पानी उतर आया. आंखें पोंछ कर प्लेटों में पकौड़े डाले. चटनी निकाली. ले जा कर सहेलियों को परोसा और हाथ जोड़ कर आग्रह किया, ‘‘यही स्वागत कर पा रही हूं तुम लोगों का.’’ फिर किचन में जा कर हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, ‘‘कृपा कर के अब बनाना बंद करो. माफी चाहती हूं मैं ने तुम्हें डिस्टर्ब किया.’’
सहेलियां तो दुखी मन से उस की चर्चा करते शाम की ट्रेन से चली गईं अपनेअपने शहर, पर मैं परेशान ही रही. अगली शाम को वह खुद आ गई मेरे घर. वैसे ही जर्जर शरीर ढोते, हांफतेहांफते. बोली, ‘बच्चे स्कूल से आ गए, बहू भी. तब आ पाई हूं. चाय पिला.’
मैं ने जल्दी से चाय बनाई. नाश्ता बनाने के लिए चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ाई कि वह बोली, ‘‘बनाना छोड़, घर में कुछ हो तो वही दे दे.’’
मुझे संकोच हो आया, ‘‘सवेरे मेथी के परांठे बनाए थे. जल्दी काम निबटाने के चक्कर में आखिरी लोइयों को मसल कर 2 मोटेमोटे परांठे बना लिए थे. वही हैं. तू दो मिनट रुक न. मैं बढि़या सा कुछ बनाती हूं.’’
एकदम अधीर सी वह कहने लगी, ‘‘मुझे मेथी के मोटे परांठे ही अच्छे लगते हैं. तू दे तो सही.’’
उस की बेताबी देख मैं ने वही मोटेमोटे परांठे परोस दिए. चटनी थी. वह धड़ल्ले से खाने लगी. खा कर चाय पीने लगी तो मैं ने पूछा, ‘‘तू भूखी थी क्या?’’
उस की आंख में पानी उतर आया, बोली, ‘‘हां.’’
‘‘हो क्या गया?’’
उस का गला भर आया. कुछ रुक कर बोली, ‘‘कांड ही हो गया था. मेरे हाथ जोड़ कर माफी मांगने के बाद बहू अपने कमरे में जा कर मुंह लपेट कर औधेमुंह पलंग पर पड़ गई. मैं ने जा कर चौका समेटा. बचे हुए ढेर सारे घोल में से कुछ फ्रिज में रखा. बाकी कामवाली को दे दिया. पकौड़ों में से भी कुछ रखा, बाकी कामवाली को दिया. रात का खाना बना कर बच्चों को खिलाया.