पूर्व कथा
अभी तक आप ने पढ़ा, स्वर्णा की जिंदगी में कई उतारचढ़ाव आए. उस की महत्त्वाकांक्षी मां की अपने पति से बनती नहीं थी. इसी कलह के कारण उस के पिता दूसरे शहर में अन्य स्त्री के साथ रहने लगे. फिर स्वर्णा की मां को भी दिल्ली के अस्पताल में नर्स की नौकरी मिल गई तो वे दोनों बूढ़ी दादी को छोड़ कर दिल्ली चली आईं. वहां का नया माहौल स्वर्णा को अजीब लगा और वह गुमसुम रहने लगी. धीरेधीरे उस की दोस्ती अपने जैसी गुमसुम रहने वाली लड़की लतिका से हो गई. लतिका एक दिन उसे अपने बंगले में ले गई जहां की शानोशौकत देख कर स्वर्णा दंग रह गई. वहां उस की मुलाकात लतिका की बीमार मां से हुई, तभी लतिका के पापा भी औफिस से लौट आए, जिन्हें देख स्वर्णा उन की ओर आकर्षित हुई. फिर जब वे स्वर्णा को गाड़ी में उस के घर छोड़ने आए तो अनजाने में उन का स्पर्श स्वर्णा को गुदगुदा गया.
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मेरा एक कमरे वाला घर आ गया तो उन्होंने स्वयं नीचे उतर कर मेरी तरफ की खिड़की खोली, ‘आओ, स्वर्णा...’ इतना सम्मान...
‘चाय नहीं लेंगे सर?’ मैं ने संकोच छोड़ आग्रह सा किया, ‘मां दरवाजे पर खड़ी हैं, उन से नहीं मिलेंगे...?’
वे सिर्फ मुसकराते रहे. फिर कभी आने को कह गाड़ी आगे बढ़ा ले गए.
लतिका के पापा को देख कर मां बहुत खुश हुईं और पूछ बैठीं, ‘कौन था यह आलीशान गाड़ी वाला?’
‘मेरी सहेली लतिका के पापा,’ मैं उत्साह से सराबोर थी, ‘मैं ने जिंदगी में ऐसा शानदार बंगला नहीं देखा मम्मी, जैसा इन का है...और पता है मम्मी, इन्होंने नाश्ते में मुझे क्याक्या खिलाया?’ इस तरह मां को मैं बहुत कुछ बता गई. पर उन की जांघ मेरी नंगी जांघ से सटी रही, मुझे यह छुअन अद्भुत लगी, इस बात को मैं ने छिपाए रखा और इस अनुभव को मैं गोल कर गई.