अपनी बेटी से मैं अकसर कहने लगी थी, ‘आदमी पर नहीं, पैसों पर भरोसा करना बेटी. आदमी धोखा दे सकता है पर बैंक में जमा पैसा हमें कभी धोखा नहीं देता.’
पता नहीं क्यों मेरी बेटी दिनोदिन उद्दंड होती जा रही थी. उसे भी अपने बाप की तरह मेरे चरित्र पर संदेह होने लगा था. हो सकता है उस की यह सोच इसलिए बनी हो कि मेरी सास मुझे अकसर कुलच्छनी कहा करती थीं. जलीकटी सुनाने पर आतीं तो जबान पर काबू नहीं रहता था, ‘जवानी फट रही है इस औरत की. पता नहीं कहांकहां, किसकिस के बिस्तर पर पड़ी रहती है और यहां आ कर सतीसावित्री बनने का नाटक दिखाती है. मैं क्या अंधीबहरी हूं कि मुझे कुछ दिखाई और सुनाई नहीं देता?’
खूब कलह होती. उन से कहती कि लड़की पर क्या असर पड़ेगा जरा यह तो सोचें. पर वे कतई कुछ न सोचतीं. एकदम भड़क जातीं, ‘तेरी तरह वह भी शरीर का धंधा करेगी और क्या होगा? खानदान का नाम वह भी रोशन करेगी.’
ऐसे माहौल में न खुद मैं रहना चाहती थी, न अपनी बेटी को रखना चाहती थी. जितनी जल्दी हो सके मैं अपनी बेटी को ले कर किसी बड़े शहर में चली जाना चाहती थी, जहां अच्छे अस्पताल हों और मेरे अनुभव और कुशलता के अनुरूप जहां अच्छी तनख्वाह पर नौकरी मिल सके. लड़की का भी यह गंदा माहौल बदले और इस बुढि़या से नजात मिले.
दिल्ली के एक नामी अस्पताल में काम मिला तो मैं ने वहां जाने की तैयारी कर ली. लड़की ने सुना तो तुनकी, ‘आप चली जाएं, मैं यहीं दादी के पास रहूंगी.’