दावतों में जाना माया को पसंद नहीं था क्योंकि वह बदले में किसी को दावत नहीं दे सकती थी, खासकर उस घर में जहां यह इंतजार रहता था कि कब वह शादी कर के विदा हो और उस की चारपाई की जगह पर उस के भतीजे की पढ़ने की मेज लग सके. लेकिन यह दावत विभागाध्यक्ष मनोरमाजी ने अपने पति मनोज की तरक्की होने की खुशी में दी थी, न जाने पर मनोरमाजी नाराज हो जातीं और उन्हें नाराज करना जल में रह कर मगर से बैर मोल लेना था.
दावत में मनोरमाजी के ही नहीं मनोज के औफिस के लोग भी थे. परस्पर परिचय के बाद, सदाबहार विषय देश की वर्तमान स्थिति पर बहस छिड़ गई.
‘‘वर्तमान स्थिति तो बहुत ही हास्यास्पद है भई, सुबह के समय सरेआम यानी खुले में फारिग होते लोग मोबाइल पर बतिया रहे होते हैं, कहीं और मिलेगी पिछड़ेपन और आधुनिकीकरण की ऐसी मिसाल?’’ मिर्जा साहब की बात पर जोरदार ठहाका लगा.
‘‘एक मिसाल और भी है, हमारे समाज में एक ओर तो लिव इन रिलेशनशिप जीरो है और दूसरी ओर आधुनिक उच्च जातियां अभी भी जातिबिरादरी और दहेज के लेनदेन में बुरी तरह पिछड़ी हुई हैं. उन के उत्थान के आसार मुझे अपनी जिंदगी में तो नजर नहीं आ रहे,’’ एक युवक ने उत्तेजित स्वर में कहा.
‘‘ऐसी क्या नाराजगी है अपनी उच्च जाति से, विद्याधर, साफसाफ बताओ बंधु?’’ मनोज ने पूछा.
‘‘आप सब अकसर पूछते रहते हैं न कि शादी कब कर रहे हो तो सुनिए, मेरी शादी इस जन्म में तो होने से रही क्योंकि हमारे श्रीपंथ समाज में लड़कों का मूल्य निर्धारित है यानी उतनी मोटी रकम दहेज में लिए बगैर मेरे मांबाप मेरी शादी नहीं करेंगे, बिरादरी में इज्जत का सवाल है और मेरे जैसे मामूली सूरतशक्ल, नौकरी और परिवार यानी हर तरह से औसत लड़के के लिए कोई उतनी रकम क्यों देगा जबकि उतने में मुझ से बेहतर घरवर मिल सकता है.