‘‘मनोज, यहां तुम अपने हस्ताक्षर करो और यहां अपनी बूआ के दस्तखत करवा दो,’’ फूफाजी ने फोल्ड किया एक स्टांप पेपर मेरे सामने मेज पर रख दिया.
कागज पर केवल हस्ताक्षर करने का स्थान ही दिख रहा था. बाकी का तह किया कागज फूफाजी ने अपने हाथ में दबा रखा था.
‘‘पहले जरा सांस तो लेने दीजिए,’’ मैं ने कहा फिर पास वाले सोफे पर माथे पर बल डाले बैठी बूआजी पर एक नजर डाली.
बूआजी ने मुझे देखते ही मुंह फेर लिया.
‘‘कागजी काररवाई के बाद जितनी सांसें लेनी हों ले लेना,’’ फूफाजी बोले, ‘‘शाबाश, करो दस्तखत.’’
‘‘फूफाजी इसे पढ़ने तो दीजिए, क्योंकि बुजुर्गों ने कहा है कि बिना पढ़े कहीं भी हस्ताक्षर न करो,’’ मैं ने कागज खोल कर पढ़ना चाहा.
‘‘मैं ने जो पढ़ लिया है. मैं क्या तुम्हारा बुजुर्ग नहीं हूं?’’ फूफाजी ने गंभीर स्वर में कहा.
‘‘वह तो ठीक है मगर इस में लिखा क्या है?’’
‘‘यह तलाक के कागज हैं,’’ फूफाजी ने बताया.
‘‘मगर किस के तलाक के हैं?’’
‘‘यह मेरे और तुम्हारी बूआजी के आपसी सहमति से तलाक लेने के कागज हैं.’’
‘‘क्या?’’ मैं ने फूफाजी की ओर अब की बार इस तरह देखा जैसे उन के सिर पर सींग निकल आए हों, ‘‘मुझे लगता है आज आप ने सुबह ही बोतल से मुंह लगा लिया है.’’
‘‘अरे, नहीं बेटे, मैं पूरी तरह से होश में हूं. चाहो तो मुंह सूंघ लो,’’ फूफाजी ने मुंह फाड़ा.
‘‘फिर यह तलाक की बात क्यों? क्या बूआजी से फिर कोई झगड़ा हुआ?’’
‘‘न कोई झगड़ा न बखेड़ा... यह तलाक तो मैं अपने वंश के लिए ले रहा हूं.’’
‘‘आप साफसाफ क्यों नहीं बताते कि बात क्या है?’’ मैं ने बेचैनी से पूछा.