वृंदा ने बात को जल्दी ही समाप्त किया और लगभग भागती हुई अपने घर आ गई. घंटेभर शांति से बैठने के बाद जब उस की सांसें स्थिर हुईं तब उसे घर छोड़ कर बाहर अकेले रहने का अपना फैसला गलत लगने लगा. कितना कहा था रवि ने कि इसी घर में पड़ी रहो, पर वह कहां मानी. स्वाभिमान और आत्मसम्मान आड़े आ रहा था. पता नहीं क्या हो गया था उसे. भूल गई थी कि औरतों का भी कहीं सम्मान होता है. पर उसे तो स्वयं पर भरोसा था, समाज पर विश्वास था. सुनीसुनाई बातें वह मानती नहीं थी.
उस के अनुभव में भी अब तक ऐसी कोई घटना नहीं थी कि वह डरती. किंतु अब तक वह पति के द्वारा छोड़ी भी तो नहीं गई थी. पति ने छोड़ा है उसे? नहीं, वृंदा स्वाभिमान से घिर जाती. वह पति के द्वारा छोड़ी गई नहीं है बल्कि उस ने अपने पति को छोड़ा था. जब वह अपने पति द्वारा दिए अपमान को न सह सकी तब डा. निगम से इतना डर क्यों? इसी साहस के बल पर वह अकेले रहने निकली है? डा. निगम जैसे तो अब पगपग पर मिलेंगे. कब तक डरेगी?
अंधेरा घिर आया था. किसी ने दरवाजा फिर खटखटाया. वृंदा फिर भयभीत हुई. भय अंदर तक समाने की कोशिश कर रहा था, किंतु वृंदा ने उठ कर पूरे साहस के साथ दरवाजा खोल दिया. दरवाजे के सामने पड़ोस में रहने वाली मिसेज श्रीवास्तव खड़ी थीं. वृंदा को उदास देख उन्हें शंका हुई. उन्होंने कारण पूछा तो वृंदा रो पड़ी तथा शाम को घटी घटना का बयान ज्यों का त्यों उन के सामने कर दिया. फिर मिसेज श्रीवास्तव के प्रयास से ही 15 दिन के भीतर उसे यह कमरा मिला था.