लेखिका- इंदिरा दांगी
सो, नैवेद्य की तो कोई दिक्कत थी नहीं. मैं उसे तैयार कर मिसेज सिंह के यहां छोड़ने जाने ही वाली थी कि दाहिनी पलक जोर से फड़की. मुझे याद आया, मां दाहिनी आंख के अपशकुन से कितना डरती थीं, खासकर हम बच्चों की सलामती के लिए.
‘इसे साथ भी तो ले जाया जा सकता है,’ मेरे भीतर से किसी ने कहा.
‘अरे, यह अपशकुन नहीं होता.’
मैं बच्चे के बालों में कंघी करने लगी. आदतन उस का माथा चूमा और उस के चेहरे को देख कर मुसकरा ही रही थी कि पलक में फिर कंपन महसूस हुई.
‘साथ ले जाने में क्या बुराई है?’
इस दफा मैं खुद पर काबू न रख सकी और मन बना लिया, नैवेद्य को अपने साथ ले जाऊंगी.
बाहर, देर से होती बारिश पूरी तरह रुक चुकी थी और आसमान से बादल छंट रहे थे. अभीअभी फिर से निकली तेज धूप में चुभन थी. मैं ने स्कूटी बाउंड्री से बाहर निकाली और स्टार्ट भी नहीं कर पाई थी कि नैवेद्य दौड़ कर उस में आगे खड़ा हो गया. दाहिनी आंख का फड़कना बदस्तूर जारी था. मन में एक आशंका जगी. अगर कहीं स्कूटी टकरा गई, फिसल या गिर पड़ी तो आगे खड़े नैवेद्य को मुझ से ज्यादा चोटें आएंगी. क्रूर कल्पना ने जैसे मेरे शरीर को निचोड़ लिया, पिंडलियों और कलाइयों में इस कदर कमजोरी महसूस हुई कि स्कूटी को स्टैंड पर खड़ी कर मैं बच्चे को देखने लगी. मन सांपछछूंदर वाली हालत में था.
मैं ने खुद से अचरज से पूछा, ‘आज क्यों मैं नैवेद्य को पड़ोस में नहीं छोड़ना चाहती?’ भीतर से तुरंत उत्तर आया, बुरेबुरे खयाल की शक्ल में, ‘मिसेज सिंह का क्या भरोसा, बुढ़ापे का शरीर है. बच्चा कहीं दौड़ कर सड़क पर आ गया तो? कोई भारी चीज अपने ऊपर गिरा ली तो? छत पर अकेला भाग गया तो?’ और भी न जाने कितने ‘तो’ दिमाग में आने लगे. मिसेज सिंह पहली बार मुझे बच्चे को संभालने में असमर्थ जान पड़ीं.