ट्रेन उस छोटे से स्टेशन पर रुकी तो सांझ घिरने लगी थी. सुनहरे अतीत में लिपटी रेशमी हवाओं ने मेरी अगवानी की. मैं अपने ही शहर में देर तक खड़ा चारों ओर देखता रहा. मेरे सिवा वहां कुछ भी तो नहीं बदला था. मेरे आने के बाद हुई बूंदाबांदी तेज बारिश में बदल गई थी. यहां टैक्सी की जगह रिकशे मिलते हैं. बारिश के कारण वे भी नजर नहीं आ रहे थे. मैं पैदल ही चल दिया. पानी के साथ भूलीबिसरी यादोें की बौछारें मुझे भिगोने लगी थीं.
कालेज के दिनों में मेरे सूखे जीवन में पुरवाई के झोंके की तरह मंजरी का प्रवेश हुआ था. बनावटीपन से दूर, बेहद भोली और मासूम लगी थी वह. पता नहीं कैसा आकर्षण था उस के रूपरंग में कि मेरे भीतर प्रपात सा झरने लगा था.
कुछ दिन में वह खाली समय में लाइब्रेरी में आने लगी थी. उस की उपस्थिति में वहां का जर्राजर्रा महकने लगता था. जितनी देर वह लाइब्रेरी में रुकती मेरी सुधबुध खोई रहती थी.
कुछ दिनों तक मंजरी नजर नहीं आई तो कालेज सूनासूना सा लगने लगा था. पढ़नेलिखने से मेरा जी उचट गया. ऐसे ही एक दिन मैं निरुद्देश्य...लाइब्रेरी में गया तो एकांत में किताब लिए वह बैठी दिखाई दी. अगले ही पल मैं ठीक उस के सामने खड़ा था.
‘कहां थीं इतने दिन तक? तुम नहीं जानतीं उस दौरान मैं कितना अपसैट हो गया था. मेरे लिए एकएक पल काटना मुश्किल हो गया. बता कर तो जाना चाहिए था...’ मैं एक सांस में बिना रुके जाने क्याकुछ कहता चला गया.
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