‘‘पहेलियां तो बुझाओ मत. क्या बात है, यह बताओ. बैंक में किसी से झगड़ा कर के आई हो क्या?’’
‘‘लो और सुनो. मैं और झगड़ा? घर में अपने विरुद्ध हो रहे अत्याचार सहन करते हुए भी जब मेरे मुंह से आवाज नहीं निकलती तो भला मैं घर से बाहर झगड़ा करूंगी? कैसी हास्यास्पद बात है यह,’’ कामना का चेहरा तमतमा गया.
‘‘क्या कह रही हो? कौन अत्याचार करता है तुम पर? तुम स्वयं कमाने वाली, तुम ही खर्च करने वाली,’’ सुमन भी क्रोधित हो उठीं.
‘‘क्या कह रही हो मां. मैं तो पूरा वेतन ला कर तुम्हारे हाथ पर रख देती हूं. इस पर भी इतना बड़ा आरोप.’’
‘‘तो कौन सा एहसान करती हो, पालपोस कर बड़ा नहीं किया क्या? हम नहीं पढ़ातेलिखाते तो कहीं 100 रुपए की नौकरी नहीं मिलती. इसे तुम अत्याचार कह रही हो? यही तो अंतर होता है बेटे और बेटी में. बेटा परिवार की सहायता करता है तो अपना कर्तव्य समझ कर, भार समझ कर नहीं.’’
‘‘आप बेकार में बिगड़ रही हैं...मैं तो उस तमाशे की बात कर रही थी जिस की व्यवस्था हर तीसरे दिन आप कर लेती हैं,’’ कामना ने मां की ओर देखा.
‘‘कौन सा तमाशा?’’
‘‘यही तथाकथित वर पक्ष को बुला कर मेरी प्रदर्शनी लगाने का.’’
‘‘प्रदर्शनी लगाने का? शर्म नहीं आती...हम तो इतना प्रयत्न कर रहे हैं कि तुम्हारे हाथ पीले हो जाएं और तुम्हारे दूसरे भाईबहनों की बारी आए,’’ सुमन गुस्से से बोलीं.
‘‘मां, रहने दो...दिखावा करने की आवश्यकता नहीं है. मैं क्या नहीं जानती कि मेरे बिना मेरे छोटे भाईबहनों की देखभाल कौन करेगा?’’
‘‘हाय, हम पर इतना बड़ा आरोप? जब हमारी बेटी ही ऐसा कह रही है तो मित्र व संबंधी क्यों चुप रहेंगे,’’ सुमन रोंआसी हो उठीं.